जैन श्रावकों द्वारा पर्वाधिराज दशलक्षण महापर्व बड़ी ही भक्ति एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा

जैन श्रावकों द्वारा पर्वाधिराज दशलक्षण महापर्व बड़ी ही भक्ति एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा

बिलासपुर(अमर छत्तीसगढ़) 22 सितंबर। शहर के समस्त जैन श्रावकों द्वारा पर्वाधिराज दशलक्षण महापर्व बड़ी ही भक्ति एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। इस अवसर पर बिलासपुर स्थित तीनों जैन मंदिरों में प्रातः 6:30 बजे से मंगलाष्टक प्रारम्भ होकर तदोपरांत अभिषेक, शांतिधारा एवं पूजन का आयोजन किया जा रहा है। पूजन उपरान्त 9:15 बजे से सरकण्डा स्थित भगवान पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर जी में श्री श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर से पधारे पंडित आशीष जी शास्त्री के प्रवचन का लाभ सभी श्रावकों को मिलता है। दोपहर 3:00 बजे से 4:00 बजे तक पंडित जी द्वारा क्रांतिनगर मंदिर जी में स्वाध्याय करवाया जाता है। सायंकालीन समय में 6:15 बजे से 7:00 बजे तक सामायिक भी करवाया जा रहा है।

इस प्रकार दिन में तीन बार धर्म लाभ लेने का सुअवसर सकल समाज को मिल रहा है। विभिन्न सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यकम करवाने के लिए संकल्पित समर्पण समूह द्वारा प्रतिदिन दोपहर 4:00 बजे एक धर्मिक प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता आओ ज्ञान बढ़ाये का आयोजन किया जा रहा है। सायं 7:00 बजे से तीनों जैन मंदिर जी में संगीतमय आरती आयोजित की जाती है। इसके बाद पुनः सभी श्रावकों को पंडित जी के प्रवचन का लाभ रात्रि 8:15 बजे से 9:00 बजे तक क्रांतिनगर मंदिरजी में मिलता है। तदोपरांत प्रतिदिन रात्रि 9 बजे से क्रांतिनगर मंदिर के नायक हाल में सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं।

दशलक्षण पर्व के चौथे दिन उत्तम शौच धर्म के दिन प्रवचन में पंडित जी ने बताया कि “शौच” का अर्थ होता है – “प्रवित्रता” या “सफाई” । मद, क्रोधादिक बढ़ाने वाली जितनी दुर्भावनाएं हैं, उनमें लोभ सबसे प्रबल है. इस लोभ पर विजय पाना ही “उत्तम शौच” है। उन्होंने कहा कि हम लालच के वसीभूत होकर न जाने कितने अपराध करके पापों का संग्रह करते रहते हैं। जबकि लालच करने से, सिवाय पाप बन्ध के अलावा कुछ मिलने वाला नहीं है, इसीलिए लोभ पाप का बाप कहलाता है।

उन्होंने कहा कि संतोष धारण करना ही जीवन जीने की कला है, संतोष ही जीवन में शान्ति प्रदान कर सकता है। विपरीत सोच ही नुक़सान पहुँचाती है। हमारा जीवन कर्माधीन है, अच्छे कर्म करेंगे तो अच्छा फल मिलेगा। हमें क्रिया में संतोष धारण करते हुए, क्रोध-मान माया लोभ से दूर रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब सब कुछ कर्माधीन है तो लालच नहीं करके अच्छे कर्म करके पुण्य बढ़ाना चाहिए। तभी जीवन भी सरल चलेगा,और मोक्ष का मार्ग भी मिलेगा। उन्होंने एक दोहे के माध्यम से समझाया कि उत्तम शौच लोभ परिहारी, संतोषी गुण रतन भंडारी। अर्थात्‌ जिस व्यक्ति ने अपने मन को निर्लोभी बना लिया है, मोह, माया से संतोष धारण कर लिया है, उसे जीवन में परम-शांति निश्चित उपलब्ध हो जाती है।

जैन धर्म के तीन प्रमुख रत्न हैं – सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र। सम्यक्तव रूपी बीज से ही मोक्ष रूपी फल की प्राप्ति होती है इसलिए संसारी प्राणियों के लिए तीनों कालों और तीनों लोकों में सम्यकत्व के समान सुखकारी, कल्याणकारी अन्य कोई वस्तु नहीं है।सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम की कड़ी में उत्तम आर्जव धर्म के दिन जैन समाज बिलासपुर में संचालित पाठशालाओं के बच्चों द्वारा इन्ही रत्नो में से एक सम्यक दर्शन के आठ अंगों में प्रसिद्ध हुए साधु, संतों, महापुरुषों की कहानी को नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया। किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत मंगलाचरण से की जाती है, उत्तम आर्जव धर्म के दिन आयोजित सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम का शुभारम्भ सरकंडा मंदिर पाठशाला के बच्चों आद्या, अनायशा, विद्यानशी, आर्या, परीशा, मिहिरा, शुभि, दिव्यांश, पुण्यांश, शुभ, संस्कार, दिव्यांश द्वारा अँधियारा या दूर किनारा भजन पर मंगलाचरण से किया गया, जिसका निर्देशन क्षिप्रा, अनी और मोना जैन द्वारा किया गया। सरकंडा मंदिर की पाठशाला के बच्चों ने स्थितिकरण अंग में प्रसिद्ध हुए महात्मा की लघु नाटिका प्रस्तुत की।

धर्म और चारित्र से कोई चलायमान हो रहा हो तो उसे प्रेम से समझाकर कर धर्म मार्ग पर स्थिर करना स्थितिकरण अंग है। वारिषेण मुनिराज ने अपने मित्र पुष्पडाल को दीक्षा दी, उन्हें धर्म के मार्ग पर लगाया, और जब वह धर्म के मार्ग से विचलित हो गए तो उन्हें सही मार्ग पर लाने के लिए उन्हें समझाया और उन्हें उनकी स्थिति में वापस लाया। इस नाटिका में छोटे -छोटे बच्चों वंश, आन्या, अन्वी, अविशी, हर्ष, अनमोल, पार्शवी, सौम्या, सोहिनी ने मनमोहक अभिनय करके इस प्रस्तुति को जीवन्त कर दिया। इस नाटिका को सफल बनाने में प्रीति, अर्पणा और अमन का योगदान रहा।

दूसरी प्रस्तुति क्रांतिनगर पाठशाला के बच्चों की रही, इसमें उन्होंने निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध हुए मुनि की कहानी प्रस्तुत की। इस अंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यह शरीर मल मूत्र आदि अपवित्राओं का पिटारा है, किंतु इसी शरीर से हम सम्यक्तव की प्राप्ति कर लें तो फिर मोक्ष ज्यादा दूर नहीं।
मानव शरीर ही मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, देवता भी इस मनुष्य तन को प्राप्त करने के लिए तरसते हैं। अतः इसकी अपवित्रता पर ध्यान न देकर केवल यही ध्यान रखें कि मनुष्य शरीर ही मोक्ष साधक है, अन्य देवादिक का शरीर नहीं। इस अनुभूति के साथ रत्नात्रय में प्रीति रखना, मलिन शरीर मे ग्लानि न रखना ही निर्विचिकित्सा अंग है। इस प्रस्तुति का निर्देशन प्रिया, भुवि और रागिनी जैन ने किया। इस नाटिका में सर्वार्थ, अक्की, जीविका, नन्हे, रिद्धिमा, आमर्ष, अणिमा, वेदांत और न्यूमियू ने शानदार अभिनय से सभी का मन मोह लिया।

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