काठमाण्डौ नेपाल(अमर छत्तीसगढ़) 7 अगस्त।
जैन धर्म में नारी को पुरुषों की भांति ही धार्मिक अधिकार प्रदान किये गये थे। जहां भगवान् बुद्ध ने संशय की स्थिति के उपरान्त पांच वर्ष बाद नारी को दीक्षित किया वहीं अन्य धर्मों में “ढोर गिवांर पशु सम नारी” ये कहा गया है। भगवान महावीर ने कैवल्य प्राप्ति के बाद गौतम को दीक्षित करने के साथ ही चंदना को भी दीक्षित कर साध्वी प्रमुखा बनाया।
श्रावक एवं श्राविकाओं के लिए समान रूप से बारह व्रतों का विधान किया गया था। उन्नीसवें तीर्थंकर भगवती मल्लि ने तीर्थंकर पद को प्राप्त किया था। पुरुष तीर्थंकर के समान ही कु० मल्लि द्वारा दीक्षाग्रहण की गई तथा अन्य तीर्थंकरों के समान भगवती मल्ली ने चतुर्विध संघ बनाया।
श्वेतांबर परंपरा के अनुसार उपरोक्त सभी नारियों ने मोक्ष को प्राप्त किया है। उपरोक्त विचार आचार्य श्री महाश्रमण जी के प्रबुद्ध सुशिष्य मुनि श्री रमेश कुमार जी ने आज तेरापंथ कक्ष स्थित महाश्रमण सभागार में आयोजित “उपासना सप्ताह के अंतर्गत “आगमयुग की श्राविकायें” विषय पर प्रवचन करते हुए व्यक्त किये।
मुनि रमेश कुमार जी ने आगे कहा- जो नारी शील धर्म का पालन करती है देवता भी उसको वंदन करते हैं। उस काल में नारी को धार्मिक स्वतंत्रता थी। एक ही राजा की रानियां अलग-अलग धर्म की उपासिकाएं हो सकती थीं, जो धर्मनिष्ठ और विद्वान थीं। आगमों में सुलसा, सुभद्रा, जयन्ति आदि श्राविकाओं के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। जैन धर्म में जहां नारी को पुरुष के समान अधिकार दिये गये हैं। नारी को आध्यात्मिक क्षेत्र में जितना अधिक महत्व जैन धर्म ने प्रदान किया गया है, उतना प्राचीन संस्कृति में अन्यत्र नहीं मिलता।
मुनि रत्न कुमार जी ने ने भी इस अवसर पर अपने सारगर्भित विचार व्यक्त किये।
संप्रसारक
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा काठमाण्डौ नेपाल