परमात्मा तभी खुश होंगे जब आप खुश रहेंगे : प्रवीण ऋषि

परमात्मा तभी खुश होंगे जब आप खुश रहेंगे : प्रवीण ऋषि


लालगंगा पटवा भवन में जारी है पुच्छिंसुणं आराधना
रायपुर(अमर छत्तीसगढ़) 19 नवंबर। पुच्छिंसुणं आराधना के पंचम दिवस धर्मसभा को संबोधित करते हुए उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि ने कहा कि जंबूस्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा कि कौन सा ज्ञान, कौन सी श्रद्धा और कैसा शील महावीर को प्रभु महावीर बनता है? सुधर्मा स्वामी ने कहा कि पहले तुम परमात्मा के धर्म को जानो, उनकी प्रज्ञा को समझो। ये सारे बिना पूछे सवालों के जवाब हैं। और सबसे बड़ी बात उनकी शक्ति और उल्लास। प्रभु जो भी कार्य करते थे, उसमे अपनी पूरी शक्ति लगा देते थे। उल्लास और ख़ुशी के साथ वे साधना करते थे। जिस काम को करने में आनंद आता है, उस समय शक्ति का जागरण होता है। उक्ताशय की जानकारी रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने दी।

धर्मसभा को संबोधित करते हुए उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि ने कहा कि हमें कांटा चुभता है तो दर्द होता है, क्योंकि हमारे अंदर दर्द महसूस करने की ग्रंथि रहती है। अगर यह ग्रंथि नहीं रहेगी तो हमें दर्द का अहसास नहीं होगा। सबके पास यह ग्रंथि होती है, लेकिन महावीर ने उसे समाप्त कर दिया था। संगमदेव उन्हें कष्ट देता है, लेकिन परमात्मा देखते हैं कि मेरी अनंत निर्जरा हो रही है। संगमदेव को लग रहा था कि वह महावीर को कष्ट दे रहा है, लेकिन वे तो इसमें भी ख़ुशी महसूस कर रहे थे। कर्म निर्जरा की एक शर्त है कि जो काम आप कर रहे हो, उसे ख़ुशी ख़ुशी करो। पुण्य करते हुए ख़ुशी मनाओगे तो पुण्य श्रावक बनोगे, पाप करते हुए ख़ुशी मनाओगे तो नर्क का बंद होगा। क्षमा, दान देते समय अगर आनंद का अनुभव होता है तो आपका ज्ञान-श्रद्धा-शील सुमेरु पर्वत जैसा हो जाता है। अपने किसी को वंदन किया तो उसकी ख़ुशी मनाओ। वंदन करने से शक्ति का संचार होता है। आप किसी का वंदन करते हैं तो उसे भगवान बनाते हैं। इससे बड़ी ख़ुशी और क्या हो सकती है कि मैं किसी को प्रभु बना रहा हूँ। ख़ुशी में शक्ति प्रकट होती है, ख़ुशी महसूस नहीं हुई तो शक्ति समाप्त हो जाती है। जो जी रहे हो उसमे ख़ुशी मनाओ। किसी परिस्थिति में ख़ुशी मनाना है या दुःख, यह हमपर निर्भर करता है। परमात्मा तभी खुश होंगे जब हम खुश रहेंगे।

उपाध्याय प्रवर ने कहा प्रभु महावीर की प्रज्ञा जगत के लिए है। उनकी सोच है कि पूरे विश्व का, समस्त जीवों का कल्याण हो जाए। जैन भूगोल में दो पर्वतों का जिक्र है एक है निषध पर्वत जो सबसे ऊँचा है, और दूसरा है रुचक पर्वत जो सबसे चौड़ा है। सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि कुछ लोग होते हैं जो परिवार की परवाह करते हैं, वहीं कुछ लोग बाहर वालों की। हमें परिवार से ख़ुशी मिलती है कि बाहर वालों से? कुछ लोग दूर की देखते हैं और कुछ लोग पास की। जो ऊँचा होता है वह दूर की देखता है, जो छोटा होता है वह नजदीक की देखता है। सुधर्मा स्वामी कहते हैं की परमात्मा की जो प्रज्ञा है, कल्याण की सोच है इन दोनों पर्वतों का संगम है। प्रभु किसी को नजरअंदाज नहीं करते हैं। प्रायः लोग आत्मकल्याण के लिए साधना करते हैं, लेकिन परमात्मा को आत्मकल्याण नहीं सर्वकल्याण करना था। उन्हें चंदनबाला का उद्धार करना था, चण्डकोषी का कल्याण करना था, अर्जुनमाली को मोक्ष प्रदान करना था। लेकिन उन्होंने ये सब केवलज्ञान प्राप्त करने से पहले किया। प्रभु श्रेष्ठतम धर्म का ज्ञान लेकर श्रेष्ठतम ध्यान में जाते थे। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि सुधर्मा स्वामी भी गहरे हैं और महावीर भी। हम प्रायः कर्म को क्षय करने का प्रयास करते हैं, लेकि परमात्मा ने किसी कर्म को नहीं छोड़ा, उन्होंने कर्मों को शुद्ध किया।

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