राजनांदगांव(अमर छत्तीसगढ़ ) 9 मई।युग प्रधान गुरुदेव आचार्य श्री महाश्रमण जी के सुशिष्य मुनि श्री सुधाकर जी ने आज यहां कहा कि बंधन और मुक्ति तुम्हारे भीतर ही है। भावों ही भावों में बंधन और मुक्ति हो सकता है। भाव भव परंपरा को समाप्त कर सकता है। भाव शुद्ध साधना का सर्वोत्तम मार्ग है। भावों ही भावों से जीव सातवें नरक गति में जा सकता है।
तेरापंथ भवन में आज अपने प्रवचन के तीसरे दिन मुनि श्री सुधाकर जी ने कहा कि सीढ़ियों से आप ऊपर भी जा सकते हैं और नीचे भी आ सकते हैं। संकल्प से सृष्टि और दृष्टि का निर्माण होता है। जैसा संकल्प होता है वैसा ही जीवन बन जाता है। जितने आपके संकल्प पवित्र होंगे, उतने ही आप परमगति प्राप्त करने की ओर अग्रसर होंगे। मुनि श्री ने कहा कि व्यक्ति भावों ही भावों में इतने कर्मों का बंधन कर लेता है कि वह उसे तोड़ नहीं पाता और उसी में फंसता चला जाता है। हमारी भावधारा जितनी पवित्र होगी उतना ही हमारा जीवन आनंदमय होगा। इसके लिए चार भावना जरूरी है और ये हैं पहला मैत्री भावना, दूसरा प्रमोद भावना, तीसरा करुणा भावना और चौथा मध्यस्थ भावना।
मुनि श्री सुधाकर जी ने कहा कि गांठ लगाना आसान है किंतु उसे खोलना मुश्किल है। प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव रहता है। हमारे साथ यदि कोई कुछ करता भी है तो उसे माफ कर देना चाहिए। मन में गांठ नहीं बांधनी चाहिए और यदि मन में कोई गांठ बन गई है तो उसे खोल दें। उन्होंने कहा कि प्रमोद भावना आज के युग में सबसे ज्यादा जरूरी है। दूसरों की उन्नति एवं सुख को देखकर हमारे मन में प्रसन्नता की भावना उत्पन्न होनी चाहिए। यही प्रमोद भावना है। उन्होंने कहा कि ईर्ष्या ऐसी आग है जो आत्मा के गुणों को जला देती है। जो स्वादु होता है वह साधु नहीं होता। व्यक्ति में करुणा भावना रहनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जब भीतर करुणा की भावना होती है तब आनंद आता है। उन्होंने कहा कि मध्यस्थ भावना वह होती है जो सुख में दुख में हर स्थिति में समभाव रहते हैं। उन्होंने कहा कि यह चार भावना रखें तो जीवन आनंदमय हो जाएगा। इससे पूर्व नरेश मुनि ने कहा कि जो सच्चा धार्मिक होता है वह किसी का अहित नहीं करना चाहता। वह सबका अच्छा ही सोचता है। आप भी सच्चे धार्मिक बनें।