अम्बाजी(अमर छत्तीसगढ), 27 जुलाई। जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकती रहती है ओर पुण्याई से ही मानव योनि प्राप्त होती है। अनंत कष्ट सहने के बाद पुण्य कर्म संचय होने पर मानव भव प्राप्त होता है। मानव भव ही जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति का मार्ग होने से देव योनि से भी श्रेष्ठ मानव योनि हो जाती है ओर देवता भी इस धरा पर अवतार लेकर मुक्ति को प्राप्त करते है।
ये विचार शनिवार को पूज्य दादा गुरूदेव मरूधर केसरी मिश्रीमलजी म.सा., लोकमान्य संत, शेरे राजस्थान, वरिष्ठ प्रवर्तक पूज्य गुरूदेव श्रीरूपचंदजी म.सा. के शिष्य, मरूधरा भूषण, शासन गौरव, प्रवर्तक पूज्य गुरूदेव श्री सुकन मुनिजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती युवा तपस्वी श्री मुकेश मुनिजी म.सा ने श्री अरिहन्त जैन श्रावक संघ अम्बाजी के तत्वावधान में अंबिका जैन भवन आयोजित चातुर्मासिक प्रवचन में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि मानव जीवन अनमोल है जिसे प्राप्त कर जीवात्मा 14 गुणस्थान प्राप्त कर मोक्ष में सिद्धशिला पर विराजमान हो सकती है।
इसे प्राप्त करने के लिए मानव को त्याग, तपस्या व साधना के मार्ग को अपनाना पड़ता है ओर राग,द्धेष, अभिमान से मुक्त होना पड़ता है। मोह माया से मुक्त नहीं होने वाले का मानव जीवन व्यर्थ हो जाता है। धर्मसभा में सेवारत्न श्री हरीश मुनिजी म.सा. ने कहा कि दान,शील,तप ओर भावना ये चार जीवन में मुक्ति के मार्ग है। इन मार्ग पर चलने वाले का कल्याण हो सकता है। दान में भी बिना नाम की चाह किए जाने वाले गुप्त दान की महिमा श्रेष्ठ है। जीवन में तप की भावना से शील के भाव प्रबल होते है। शील से हमारी भावना उत्तम बनती है।
धर्म एवं साधना से जुड़कर मुक्ति के इन चार मार्ग पर सहजता से चला जा सकता है। उन्होंने जैन रामायण का वाचन करते हुए रावण के पूर्वजों से जुड़े विभिन्न प्रसंगों का वाचन किया। धर्मसभा में युवा रत्न श्री नानेश मुनिजी म.सा. ने कहा कि दूसरों को जगाने से पहले खुद को जगाने का प्रयास करें। अपने आपको पढ़ लेना दुनिया की सबसे बड़ी पढ़ाई है। मुनिश्री ने कहा कि हम दूसरों की निंदा में जितना समय खपाते है उतना समय आत्मनिंदा कर ले तो हमारी आत्मा का कल्याण हो सकता है।
साधक वहीं होता है जो किसी की निंदा ओर स्वयं की प्रशंसा नहीं करता है। मनुष्य पुण्यवानी व पाप साथ लेकर आता है ओर जब इस संसार से जाता है तब भी पुण्य व पाप साथ जाते है। मधुर व्याख्यानी श्री हितेश मुनिजी म.सा. ने सुखविपाक सूत्र का वाचन करते हुए कहा कि शास्त्रों में दान की महिमा बताई गई है। इनमें भी अभयदान सर्वश्रेष्ठ है। धन, आहार ओर ज्ञान का भी दान किया जा सकता है। किसी भी तरह का दान करे दान करने वाले की भावना देखी जाती है।
व्यक्ति प्रतिदिन देने की भावना रखनी चाहिए। दान देने के बाद मन में पछतावे के भाव कभी नहीं आने चाहिए। उन्होंने कहा कि संतों को भावों के साथ आहार वैराया जाना चाहिए। आहार दान करने वालों के पुण्यकर्म का बंध होता है ओर कर्मो की निर्जरा भी होती है। धर्मसभा में प्रार्थनार्थी श्री सचिनमुनिजी म.सा. का भी सानिध्य प्राप्त हुआ। अतिथियों का स्वागत श्रीसंघ के द्वारा किया गया। धर्मसभा का संचालन गौतमचंद बाफना ने किया। चातुर्मासिक नियमित प्रवचन सुबह 9 से 10 बजे तक हो रहे है।
सुश्रावक मादरेचा ने लिए अठाई तप के प्रत्याख्यान
चातुर्मास में मुनिवृन्द की प्रेरणा से तप त्याग की धारा भी निरन्तर प्रवाहित हो रही है। धर्मसभा में शुक्रवार को सुश्रावक पवनकुमार मादरेचा ने अठाई तप के प्रत्याख्यान ग्रहण किए तो हर्ष-हर्ष की वाणी गूंज उठी ओर सभी ने तप की अनुमोदना की। कई श्रावक-श्राविकाओं ने आयम्बिल, एकासन, उपवास तप के प्रत्याख्यान भी लिए। रविवार को दोपहर 2.30 से 4 बजे तक धार्मिक प्रतियोगिता के तहत 64 श्लांधनीय पुरूषों के नाम पर प्रश्नपत्र होगा। चातुर्मास अवधि में प्रतिदिन दोपहर 2 से 4 बजे तक का समय धर्मचर्चा के लिए तय है।
चातुर्मास के विशेष आकर्षण के रूप में 15 अगस्त को द्वय गुरूदेव श्रमण सूर्य मरूधर केसरी प्रवर्तक पूज्य श्री मिश्रीमलजी म.सा. की 134वीं जन्मजयंति एवं लोकमान्य संत शेरे राजस्थान वरिष्ठ प्रवर्तक श्री रूपचंदजी म.सा. ‘रजत’ की 97वीं जन्म जयंति समारोह मनाया जाएगा। इससे पूर्व इसके उपलक्ष्य में 11 से 13 अगस्त तक सामूहिक तेला तप का आयोजन भी होगा।
प्रस्तुतिः निलेश कांठेड़
अरिहन्त मीडिया एंड कम्युनिकेशन, भीलवाड़ा, मो.9829537627