-आचार्यश्री ने अहिंसा के मार्ग पर आगे बढ़ने को किया उत्प्रेरित
-नमस्कार महामंत्र के सपादि कोटि जप के अनुष्ठान भी महातपस्वी के आशीष से प्रारम्भ
सूरत गुजरात (अमर छत्तीसगढ) 1 अगस्त।
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्तमान समय में सूरत शहर के वेसु में स्थित भगवान महावीर युनिविर्सिटि परिसर में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे हैं। महातपस्वी के मंगल सन्निधि में सूरत शहरवासी ही नहीं, अपितु देश-विदेश से भी लोग उपस्थित होकर आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
आचार्यश्री का आगम द्वारा मंगल प्रवचन, ऊपरला आख्यान का क्रम निरंतर चल रहा है तो दूसरी ओर तेरापंथ समाज की विभिन्न संगठन, संस्थाओं के अधिवेशन और सम्मेलन क्रम भी जारी है। इसके साथ-साथ महातपस्वी आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में निरंतर धर्म और अध्यात्म के विभिन्न उपक्रमों का समायोजन भी रहा है।
जिसके कारण पूरा परिसर में आध्यात्मिक रंग में रंगा हुआ नजर आ रहा है। इस क्रम में गुरुवार से नमस्कार महामंत्र के सपादि कोटि जप अनुष्ठान का क्रम भी प्रारम्भ हुआ। जिसका प्रारम्भ आचार्यश्री ने अपने मंगल प्रवचन में स्वयं नमस्कार महामंत्र के जप कराया और जप में संभागी बनने वाले लोगों को मंगलपाठ भी सुनाया। एक महीने तक चलने वाले इस अनुष्ठान में सवा करोड़ नमस्कार महामंत्र का जप किया जाएगा।
गुरुवार को महावीर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि अहिंसा एक महान मार्ग है। एक हिंसा का मार्ग है, दूसरा अहिंसा का मार्ग है। हिंसा के मार्ग पर चलने से अशांति प्राप्त हो सकती है, दुःख की प्राप्ति होती है। दुःख हिंसा से प्रसूत होते हैं। अहिंसा का मार्ग स्वयं को भी दुःख से बचाने वाला और दूसरों को भी सुख प्रदान करने वाला होता है। आगम में बताया गया कि अहिंसा के मार्ग पर तो वीर पुरुष और पराक्रमी होते हैं, वहीं चलने का साहस कर सकते हैं।
युद्ध के मैदान में डटे रहने वाले वीर होते हैं। जो डरपोक होता है, वह तो युद्ध के प्रांगण में खड़ा भी नहीं हो पाता। जो युद्ध के मैदान में डट जाता है, वह वीर होता है। अहिंसा के मार्ग चलने वाला मानों उससे भी बड़ा वीर महावीर होता है। अहिंसा के लिए अभय की भावना होनी चाहिए। सक्षमता होते हुए भी किसी को क्षमा कर देना, कितनी बड़ी वीरता की बात होती है। इस प्रकार तीन प्रकार की श्रेणियां बनती हैं, एक तो कायरता के कारण समरांगण में जाता ही नहीं, दूसरी जो समरांगण में जाकर डट जाता है और एक अहिंसात्मक वीरता जो क्षमता होते हुए भी अभय का दान दे दे।
अहिंसा वाली वीरता सबसे ऊंची होती है। इसलिए आगम में कहा गया कि जो महावीर होते हैं, वे इस अहिंसा के मार्ग पर चल सकते हैं। अहिंसा के लिए निर्भिकता, अभय की भावना का विकास होना चाहिए। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने एक कथानक के माध्यम से बताया कि क्षमता होने पर भी किसी को अभय का दान दे देना परम वीरता की बात होती है।
अहिंसा की एक नीति भी है। अहिंसा की नीति परम सुखप्रदायक होती है। हमारे देश में यह नीति है कि हम चलाकर किसी पर आक्रमण नहीं करने की भावना कितनी बड़ी अहिंसा की बात हो सकती है। इस प्रकार आदमी के विचारों में अहिंसा का प्रभाव रहे। देश की नीति, न्याय व व्यवस्था में भी अहिंसा, समता और शांति हो, ऐसा प्रयास करना चाहिए।
1 अगस्त से 31 अगस्त तक चतुर्मास प्रवास स्थल में चलने वाले नमस्कार महामंत्र के सवा करोड़ जप अनुष्ठान के शुभारम्भ के संदर्भ में आचार्यश्री ने उपस्थित संभागियों को श्रीमुख से नमस्कार महामंत्र के जप का प्रारम्भ कराया तथा जप के संदर्भ में प्रेरणा प्रदान करते हुए मंगलपाठ भी सुनाया। तदुपरान्त आचार्यश्री ने ऊपरला व्याख्यान के क्रम को प्रारम्भ किया। तत्पश्चात सूरत के तेरापंथ किशोर मण्डल व तेरापंथ कन्या मण्डल ने पृथक्-पृथक् चौबीसी के गीतों का संगान किया।