जीवन में गुरु का नियंत्रण और अनुशासन होता है तो शिष्य कई अनाचारों, गलतियों व प्रमादों से बचाव हो सकता है- आचार्यश्री महाश्रमण

जीवन में गुरु का नियंत्रण और अनुशासन होता है तो शिष्य कई अनाचारों, गलतियों व प्रमादों से बचाव हो सकता है- आचार्यश्री महाश्रमण

-आगमवाणी को निरंतर प्रवाहित कर रहे तेरापंथ धर्मसंघ के आध्यात्मिक अनुशास्ता

-आचार्यश्री द्वारा आख्यान के मधुर संगान व वर्णन का श्रवण कर निहाल हो रहा जनसमूह

सूरत गुजरात (अमर छत्तीसगढ) 7 जुलाई ।

डायमण्ड सिटि सूरत में आध्यात्मिकता का आलोक फैलाने को पधारे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी के श्रीमुख से निरंतर ज्ञानगंगा प्रवाहित हो रही है। इस अविरल प्रवाहित ज्ञानगंगा में डुबकी लगाने को सूरत शहर की जनता उमड़ रही है। इसमें डुबकी लगाकर जनता अपने वर्तमान को ही नहीं, बल्कि अपने भविष्य को भी संवार रही है।

बुधवार को महावीर समवसरण मे समुपस्थित जनता को मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के प्रथम अध्ययन में वर्णित श्लोकों की व्याख्या करते हुए कहा कि आदमी मूर्छा और आसक्ति के कारण भी हिंसा में प्रवृत्त होता है। आदमी के पास पांच इन्द्रियां होती हैं।

उसमें संज्ञी मनुष्य इन्द्रिय जगत की दृष्टि से विकसित प्राणी होता है। इनमें भी श्रोत्र और चक्षु मनुष्य के ज्ञान को बढ़ाने वाला और बाह्य जगत से अच्छा सम्पर्क बढ़ाने वाला बन सकता है। श्रोत्र के द्वारा हम भाषा को सुनते हैं। भाषा व्यवहार जगत से जुड़ने का बहुत बड़ा माध्यम बनता है। सुनने के बाद उसी रूप में उसे देख लेने से उस बात की पुष्टि हो जाती है। वनस्पतिकाय के विषय में आदमी कभी सुन भी लेता और देख भी लेता है। इससे वनस्पतिकाय के विषय में जानकारी भी हो जाती है।

कोई घर-गृहस्थी को छोड़कर साधु बन गया, लेकिन फिर भी गृहस्थी है। गृहत्यागी होने के बाद भी बार-बार विषयों का आसेवन करता है, असंयम का आचरण करने वाला होता है, प्रमाद में रहता है, तो उसमें साधुता नहीं होती है। ऊपरी वेश से भले गृह त्यागी, लेकिन वह गृहवासी ही होता है तो कोई-कोई गृहस्थ गृहवासी भी संयम की दृष्टि से कई भिक्षुओं से उत्तम होते हैं। गृहस्थ होते हुए भी अहिंसा, संयम के प्रति सजग, अपने नियमों की अनुपालना करने वाले होते हैं।

जीवन में कई बार गुरु का नियंत्रण और अनुशासन होता है तो शिष्य कई अनाचारों, गलतियों व प्रमादों से शिष्य का बचाव हो सकता है। गुरु होते हैं तो मर्यादा-व्यवस्था का ध्यान देते हैं, कहीं अंगुली निर्देश होता है, सारणा-वारणा होता है तो वह अनुशासन अप्रिय होते हुए भी शिष्यों के लिए हितकारी सिद्ध हो सकता है। इसीलिए गुरु परंपरा, आचार्य परंपरा अपने आप में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। साधु बनकर जो संयम की निर्मलता का प्रयास रखते हैं, वे ऊंची गति को प्राप्त कर सकते हैं।

श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियां ज्ञानार्जन का माध्यम बन सकती हैं। इस इन्द्रिय जगत में साधु को ही नहीं, साधारण मनुष्य भी अपनी इन्द्रियों का संयम करे, जीवन में साधना का विकास करने का प्रयास करे, विषयों-भोगों से बचने का प्रयास करे तो उसके जीवन का कल्याण हो सकता है। आदमी को वनस्पतिकाय के प्रति भी अहिंसा और संयम रखने का प्रयास करना चाहिए।

आगमवाणी को प्रवाहित करने के उपरान्त शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आख्यान क्रम का सुमधुर संगान व उसका व्याख्यान किया। अनेकानेक तपस्वियों ने महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। मुनि उदितकुमारजी ने तपस्या के संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति दी। तेरापंथ किशोर मण्डल-सूरत ने चौबीसी के गीत का संगान किया। तेरापंथ कन्या मण्डल-उधना ने भी चौबीसी के गीत का संगान किया।

Chhattisgarh