बिलासपुर(अमर छत्तीसगढ) 9 सितंबर। दुनिया में जितने भी पर्व हैं, उन सभी का किसी न किसी घटना अथवा महापुरुष से संबंध है। लेकिन दशलक्षण पर्व का संबंध किसी घटना अथवा महापुरुष से नहीं है और न ही देश-काल, क्षेत्र विशेष, जाति-धर्म से भी इसका कोई संबंध है। यह पर्व तो शाश्वत है, सार्वजनिक तथा सार्वभौमिक है। क्योंकि यह पर्व आत्मा की शुद्धि का पर्व है, इसलिए इसे महापर्व कहते हैं।
यह पर्व तो सभी पर्वों का सम्राट माना जाता है। सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में इसका उल्लेख मिलता है। यह जैनों का सबसे पवित्र पर्व है। दिगम्बर सम्प्रदाय में यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पचंमी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है। इन दिनों में जैन मंदिरों में खूब आनंद छाया रहता है। प्रतिदिन प्रातः काल से ही सब धर्मावलम्बी मंदिरों में पहुँच जाते हैं और बड़े आनंद के साथ भगवान का पूजन करते हैं।
दिगंबर जैन समाज के दशलक्षण पर्व के पहले दिन बिलासपुर के तीनों जैन मंदिरों में प्रातः 6:30 बजे से अभिषेक और पूजन प्रारम्भ हुए। दशलक्षण पर्व के पहले दिन क्रांतिनगर मंदिर में प्रथम शांतिधारा करने का सौभाग्य श्रीमंत सेठ प्रवीण जैन, श्रीमंत सेठ विनोद जैन, सुकुमार जैन, सिंघई देवेंद्र जैन, डॉ. पी.सी.वासल एवं इनके परिवार जनों को प्राप्त हुआ। सरकण्डा मंदिर जी में यह सौभाग्य प्रभाष जैन, विजय जैन, पदम् चंद जैन, सचेन्द्र जैन, नितिन जैन, सुरेंद्र जैन, एस.सी.जैन, अखिलेश जैन एवं उनके परिवार को मिला। मंगला स्थित सन्मति विहार जिनालय में यह सौभाग्य जिमी प्रशांत जैन, बाहुबली जैन एवं उनके परिवार को प्राप्त हुआ।
इस अवसर पर श्री श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर राजस्थान से पधारे पंडित जयदीप जी शास्त्री ने अपने प्रवचन में दशलक्षण धर्म के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि दशलक्षण पर्व के दिनों में क्रमशः उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन तथा उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना की जाती है।
इन दस धर्मों के कारण ही यह दशलक्षण महापर्व कहलाता है, क्योंकि इस महापर्व में धर्म के उक्त दस लक्षणों की विशेष रूप से आराधन की जाती है। ये सभी आत्मा के धर्म हैं, क्योंकि इनका सीधा संबंध आत्मा के कोमल परिणामों से हैं। इस पर्व का एक विशेषता है कि इसका संबंध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा के गुणों से है।
इस प्रकार यह गुणों की आराधना का पर्व है। इन गुणों से एक भी गुण की परिपूर्णता हो जाए तो मोक्ष तत्व की उपलब्धि होने में किंचित भी संदेह नहीं रह जाता है। उन्होंने बताया कि एक बात और खास है कि इस सभी के साथ उत्तम शब्द जरूर जुड़ा होता है, मतलब ये सब लक्षण उत्तम ही होने चाहिए। दशलक्षण महापर्व के पहले दिन उत्तम क्षमा धर्म के बारे में बताते हुए पंडित जी ने कहा कि क्रोध एक कषाय है, जो व्यक्ति को अपनी स्थिति से विचलित कर देती है।
इस कषाय के आवेग में व्यक्ति का विचार शून्य हो जाता है और हित-अहित का विवेक खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है, जिस प्रकार लकड़ी में लगने वाली आग जैसे दूसरों को जलाती ही है, पर स्वयं लकड़ी को भी जलाती है। उन्होंने कहा कि क्रोध कषाय को समझ लेना और उस पर विजय पा लेना ही क्षमा धर्म है। मनीषियों ने कहा है कि क्रोध अज्ञानता से शुरू होता है परन्तु पश्चाताप से विचलित नहीं होना ही क्षमा धर्म है।
शास्त्री जी ने बताया कि पार्श्वनाथ स्वामी और यशोधर मुनिराज का जीवन ऐसा रहा जिन्होंने अपनी क्षमा और समता से पाषाण हृदय को भी पानी-पानी कर दिया। शत्रु-मित्र, उपकारक और अपकारक दोनों के प्रति जो समता भाव रखा जाता है वही साधक और सज्जन पुरुषों का आभूषण है। शांति और समता आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि कषाय का आवेग उसके स्वभाव को ढंक देता है।
पानी कितना भी गरम क्यों न हो पर अंतत: अपने स्वभाव के अनुरूप किसी न किसी अग्नि को बुझा ही देता है। अज्ञानी प्राणी अपने इस धर्म को समझ नहीं पाता। कषायों के वशीभूत होकर संसार में भटकता रहता है। इसलिए अपने जीवन में क्षमा को धारण करना चाहिए और नित्य यह भावना रखनी चाहिए।
इसीलिए कहा गया है कि –
सुखी रहे सब जीव, जगत में कोई कभी ना घबरावें।
बैर, पाप, अभिमान, छोड़, जग नित्य नए मंगल गावें।
रात्रिकालीन आयोजित धार्मिक कार्यक्रम में महापर्व के पहले दिन क्रांतिनगर मंदिर में संचालित पाठशाला के बच्चो ने जैन प्रमाणिक स्वाध्याय योग पर बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति दी। वर्तमान में जहां एक ओर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बढ़ता जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर जैन संस्कृति एवं सनातन संस्कृति का ह्रास देखा जा रहा है, ऐसे समय में जरूरत है अपने संस्कारों और संस्कृति को जीवित रखने की, सहेज कर रखने की।
यह संभव हो सकता है पाठशाला के माध्यम से, क्योंकि पाठशाला माध्यम है व्यक्तित्व के विकास का, नई पीढ़ी को धर्म से जोड़ने का, संस्कारवान जीवन के निर्माण का और अपने आने वाले भविष्य को सुरक्षित रखने का। कार्यक्रम की शुरुआत मंगलाचरण से करने के पश्चचात नन्हे मुन्ने बच्चों ने जिन शासन की महिमा और जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के चिन्हों को बड़े ही मनोहारी रूप से प्रस्तुत किया।
कायर्क्रम की अगले भाग में पाठशाला के बच्चों ने मुनिश्री प्रमाण सागर जी द्वारा संचालित प्रकल्पों जैसे भावना योग एवं सिद्ध क्षेत्र शिखरजी में बन रहे गुणायतन से संबंधित जानकारी को नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया। भावना योग’ प्रक्रिया तीन चरणों में व्यवस्थापित है, जो हमें अपनी मौलिक शक्ति का भान कराकर परमात्म तत्त्व से जोड़ने का एक आध्यात्मिक सूत्र सौंपती है । ‘भावना योग’ पूर्णतः जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त पर आधारित है । यह हमारी धारणा, बुद्धि का विकास करता है और हमारी संकल्प शक्ति दृढ़ बनाता है।
कार्यक्रम में अणिमा, भव्य, सिद्ध, अनोखी, अनवी, अनय, दिया, जीविका, भाविका, आरु, अतिक्ष, सम्यक, सात्विक, रिद्धिमा, दिव्यांशु, पार्थ, रिदम, लाव्या, राव्या, कुहू, भव्या, इवान, अमर्ष, हर्षिल, वेदार्थ ने प्रस्तुति दी। इन प्रस्तुतियों का निर्देशन संगीता चंदेरिया, भुवि जैन, रितिका जैन, एकता जैन, निधि जैन एवं विधि जैन ने किया।