(अमर छत्तीसगढ विशेष)
शासनपति श्रमण भगवान महावीर स्वामी जी के निर्वाण कल्याणक की प्रमुख घटनाएं
* (१)
श्रमण भगवान महावीर स्वामी जी का निर्वाण काल निकट जानकर प्रथम देवलोक का स्वामी शकेन्द्र चिंतित हुआ। विचार करने पर उसे लगा कि ‘निर्वाण – काल के समय भगवान की जन्म राशि पर “भस्मराशि” नामक महाग्रह आने वाला है,इससे जिनशासन का अनिष्ट होगा।’ शकेन्द्र भगवान के समीप आये और वंदना कर निवेदन किया ;-
प्रभो ! आपके जन्मादि कल्याणक का नक्षत्र ‘उत्तराफाल्गुनी’ है।उस पर’भस्मराशि’ नामक महाग्रह दो हजार वर्ष की स्थिति वाला संक्रमित है।यह आपके धर्म शासन ,साधु साध्वी के लिए अनिष्टकारी होगा। अत:संक्रमणकाल तक यह क्रूर ग्रह हटे वहां तक आपका आयुष्य स्थिर रहे उतना आयुष्य को बढ़ा दें,तो इस कुप्रभाव से आपकी परंपरा बच जावेगी।
प्रभु महावीर ने फ़रमाया -“शकेन्द्र ! तुम्हारे मन में तीर्थ प्रेम है। इसी कारण तुम इस प्रकार सोंच रहे हो। इन्द्र ! आयु बढ़ाने की शक्ति किसी में भी नही हैं और धर्म तीर्थ की क्षति तो दु:षम काल के प्रभाव से होगी ही।भस्मग्रह भी इसी भवितव्यता का परिणाम है,यह तो आगामी काल में जो गति होने वाली है, उसके दिग्दर्शक मात्र है।
*गौतम स्वामी को दूर किया*
पावापुरी में चातुर्मास का चौथा मास कार्तिक कृष्णपक्ष (बदी) अमावस्या का दिन था ।आने वाली रात्रि में भगवान् का निर्वाण होने वाला था।गणधर गौतमस्वामी जी का भगवान महावीर पर प्रेम अधिक था। इसलिए प्रथम गणधर गौतमस्वामी को अधिक पीडा न हो और उनका स्नेह बन्धन टूटने में निमित्त हो सके,इस उद्देश्य से भगवान ने इन्द्रभूति गौतमस्वामी को “देवशर्मा ब्राह्मण”को प्रतिबोध देने के लिए निकट के गांव में भेज दिया।
इन्द्रभूति गौतम ने भगवान की आज्ञा के अनुसार देवशर्मा को प्रतिबोध देकर जिनोपासक बनाया, उसके पश्चात वे प्रभु के पास लौटना चाहते थे पर रात्रि हो जाने के कारण लौट नहीं सके।
भगवान श्री महावीर स्वामी जी का परिनिर्वाण
कार्तिक कृष्णपक्ष की अमावस्या पाक्षिक व्रत का दिन था,काशी देश के मल्लवी वंश के नौ (९) राजा और कौशल देश के लिच्छवी वंश के नौ (९) राजाओं ने पौषध किया था। अमावस्या की पिछली रात्रि निर्वाण के समय तक सोलह प्रहर (४८ घण्टे) जितने दीर्घकाल पर्यंत प्रभु अनंत बली होने के कारण बिना खेद के देशना देते रहें।
प्रभु ने अपनी इस अंतिम देशना में पुण्यफल के पचपन (५५)अध्ययन और पापफल विपाक के पचपन (५५) अध्ययनों का कथन किया,जो वर्तमान में विपाक सूत्र दुःख विपाक और सुख विपाक सूत्र के दो खंडों में प्रसिद्ध है। भगवान श्री महावीर स्वामी जी ने इस अंतिम देशना में उत्तराध्ययन सूत्र के छतीस (३६) अध्ययन भी कहे।सैंतीसवां (३७) प्रधान नामक मरुदेवी का अध्ययन फरमाते – फरमाते भगवान पर्यंकासन में स्थिर हो गये।
इसके बाद सूक्ष्म काययोग में स्थिर रहकर बादर काययोग को रोका तत्पश्चात सूक्ष्म वचन और मनोयोग रोका।शुक्लध्यान के तीसरे चरण को प्राप्त कर सूक्ष्म काययोग का निरोध किया और शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण को प्राप्त कर पांच लधु अक्षर (अ इ उ ऋ लृ) का उच्चारण हो उतने समय तक शैलेशी दशा में रहकर शेष अघाती कर्मो का क्षय कर के सिद्ध बुद्ध एवं मुक्त अवस्था को प्राप्त हो गये।उस समय लोक में अंधकार हो गया और जीवन भर दुःख भोगने वाले नैरयिक (नारकी के जीवों)को भी कुछ समय शांति का अनुभव हुआ।
निर्वाणकाल में “स्वाति”नक्षत्र में चार घडी रात्रि शेष रहते छट्ठभक्त (बेला) की तपस्या के साथ प्रभु महावीर सोलह प्रहर तक देशना करते रहें।
प्रभु महावीर स्वामी जी कानिर्वाण कल्याणक महोत्सव किस प्रकार मनाया एवं प्रभु के निर्वाण के पश्चात प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतमस्वामी जी को केवलज्ञान का प्रकाश किस तरह प्राप्त हुआ इस पर समयानुसार चर्चा करेंगे
🙏🙏 जयमहावीर जयजिनशासन🙏🙏
संकलन अशोक संचेती बेंगलोर