जैन संत ने कहा कि क्रोध हमारा स्वभाव नहीं है
राजनांदगांव(अमर छत्तीसगढ़) 23 सितंबर। जैन संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि क्रोध हमारा स्वभाव नहीं है, शांत रहना हमारा मूल स्वभाव है। क्रोध तो विभाव है। आत्मा का एक गुण होना चाहिए वह है एकाग्र होना। उन्होंने कहा कि अच्छी आदतों के लिए प्रयास करना पड़ता है जबकि बुरी आदतें स्वयं ही आ जाती है। आप छोटों के लिए आदर्श बने।
जैन संत श्री हर्षित मुनि ने आज समता भवन में अपने नियमित प्रवचन में कहा कि कोई साधक साधना करता है तो वह एकाग्र रहता है। जिस व्यक्ति को गलती का एहसास हो जाता है उसे हिदायत देने की जरूरत नहीं होती बल्कि उसे सांत्वना की जरूरत होती है। जो जड़ की कीमत ज्यादा समझते हैं वह चेतन को कैसे समझ सकते हैं। उन्होंने कहा कि हमें जड़ को कम महत्व देना चाहिए और चेतन व भावना को समझना चाहिए। उन्होंने कहा कि पौषद और सामायिक से ज्यादा कठिन है प्रतिक्रिया न देना। प्रतिक्रिया आपको खत्म करनी होगी। अगर धर्म की रक्षा करना चाहते हैं तो यह आपके ऊपर निर्भर है। साधु के लिए शांत रहना लोगों के लिए आश्चर्य का कारण नहीं बनता लेकिन साधक का शांत रहना लोगों का आदर्श बनता है।
मुनि श्री ने कहा कि मन में ठान लें कि मैं निंदा नहीं करूंगा और ना सुनुंगा। हमें प्रतिक्रिया से थोड़ा पीछे हटना होगा और दूसरे की निंदा करने से या सुनने से बचना होगा। उन्होंने कहा कि अधिकार आने पर अहंकार नहीं आना चाहिए। अगर आप प्रतिक्रिया ही देते रहोगे तो अंदर की क्रिया कब करोगे? उन्होंने कहा कि छोटे-छोटे प्रश्नों का समाधान ढूंढिए कि मैं यहां क्यों आया हूं, यहां आने के बाद मुझे क्या करना चाहिए और आगे क्या करूंगा? हर रोज 10 मिनट साधना करें तो साधक बनना शुरू हो जाएगा और धीरे से विवेक भी जागेगा। समाधान साधना में है। कोई भी कार्य सतत, सत्कार पूर्वक और सविधि होना चाहिए। हमारी साधना एक दिन की छुटती है तो सप्ताह भर उसमें मन नहीं लगता है। इसका मतलब यह है कि साधना के प्रति, समाधि के प्रति आप का सत्कार जगा ही नहीं है। शरणागति लेकर बैठा व्यक्ति साधना करता है तो उसका हर विचार प्रभुमय होता है। उन्होंने कहा कि हमारा मन बना लें कि प्रतिक्रिया नहीं करना है प्रभु की शरणागति स्वीकार कर लें, शरणागति हो जाएंगे तो हम समाधि की ओर बढ़ेंगे। यह जानकारी एक विज्ञप्ति में विमल हाजरा ने दी।