बोलने से भ्रांतियां हटती है और नहीं बोलने से बढ़ती है
राजनांदगांव(अमर छत्तीसगढ) 27 अक्टूबर। जैन संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि हमारे भीतर शत्रुता एवं स्वार्थ के भाव ही हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं। रिश्वत आज से नहीं पुराने समय से चला आ रहा है। इसी तरह पाप पहले से चला आ रहा है किंतु पहले धर्म अधिक था। हम सोचते हैं कि हम पाप नहीं कर रहे हैं किंतु कहीं ना कहीं हम पाप के लिए लोगों को प्रेरित तो अवश्य कर रहे हैं। हम स्वार्थ के लिए ही ऐसा करते हैं।
समता भवन में आज अपने नियमित प्रवचन में जैन संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि लोग सोचते हैं कि पाप एक बार करेंगे किंतु यह पाप का दलदल है, जो एक बार किया तो फिर इसमें धंसते ही चले जाता है। हमारा शत्रु है हमारे भीतर का स्वार्थ और शत्रुता का भाव। हम अपना हित साधने के लिए अनेकों का अहित कर देते हैं। आप अपना हित जरूर साधे किंतु किसी अन्य का अहित ना हो इसका भी ध्यान रखें। उन्होंने कहा कि आपके सिद्धांत बदल सकते हैं किंतु प्रकृति का सिद्धांत कभी नहीं बदलता। जो व्यक्ति अपना समय दूसरे के हित के लिए लगाता है, उसका कभी अहित नहीं होता। माता रात भर जागती है और पुत्र को आराम से सुलाती है। वह अपने प्रति कठोर निर्णय लेती है। उन्होंने कहा कि जब जीवों के प्रति करुणा का भाव आता है तो अपने प्रति कठोर निर्णय लेना ही पड़ता है। यह तो एक सामान्य मां है फिर उस परम मां अर्थात् परमात्मा के बारे में सोचिए जो सबका हित सोचते हैं। जिसे दूसरों के प्रति चिंता होती है उसे अपने प्रति कठोरता अपनानी ही पड़ती है। हमारे में यह गुण आना ही चाहिए कि हम परहित चिंतक हों।
जैन संत ने फरमाया कि माता-पिता को बहुत ज्यादा जरूरत है कि बच्चों में संस्कार भरे। उन्होंने कहा कि एक ही घर में रहकर आप कैसे एक दूसरे के बिना बोले रह सकते हैं। छोटी-छोटी बातों को इतना लंबा खींच लेते हैं। आपमें तो गजब की कैपेसिटी है! उन्होंने कहा कि बोलने से भ्रांतियां हटती है और नहीं बोलने से यह बढ़ती है। मन ऐसा है कि खुद दुखी रहता है और दूसरों को भी सुखी नहीं देख सकता। यदि यह आदत नहीं सुधरती तो आप सुखी नहीं हो सकते। उन्होंने कहा कि दूसरों के सुख में सुखी बने , पर चिंता करें तो शायद आप भी सुखी होंगे। यह जानकारी विमल हाजरा ने दी।