जब इंद्रियां जानने के बजाय भोग में लग जाती हैं तो हम गुलाम बन जाते हैं : प्रवीण ऋषि

जब इंद्रियां जानने के बजाय भोग में लग जाती हैं तो हम गुलाम बन जाते हैं : प्रवीण ऋषि


लालगंगा पटवा भवन में 11 नवंबर से प्रारंभ होगी परमात्मा के समोशरण की आराधना

रायपुर(अमर छत्तीसगढ़) 10 नवंबर । उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि ने कहा कि जैसे मछली आटे को देखती है कांटे को नहीं, वैसे ही हम विषय को मछली की तरह आटे के रूप में देखते हैं और उसे ग्रहण कर लेते हैं। और वह कांटा हमें पकड़ कर रखता है। हमारी पांचों इन्द्रियां जान भी सकती हैं और भोग भी सकती हैं। जब ये जानने के लिए उपयोग में आती हैं तो आत्मा का वैभव बढ़ता है। जीवन समृद्ध होता है। जिस समय इन्द्रियां जानने के बजाय भोग में लग जाती हैं तो यह जीवन गुलाम बन जाता है, और वहां से उलझन शुरू होती हैं। इन्द्रियों का एकल स्‍वभाव नहीं है। मन चंचल है, पहले हम किसी विचार को ग्रहण करते हैं, और फिर विचार हमारे ऊपर कब्ज़ा जमा लेता है। ऐसे इन्द्रियों को लेकर एक चक्र शुरू हो जाता है, और इसके चलते न इन्द्रियों का रहता है और न मन का रहता है। दिखने में सामने इन्द्रियां हैं, मन है, लेकिन मूल कारण है राग और द्वेष। उक्ताशय की जानकारी रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने दी।

लालगंगा पटवा भवन में जारी उत्तराध्ययन श्रुतदेव आराधना के 18वें दिवस शुक्रवार को लाभार्थी परिवार गुलाबचंद मयंककुमार मालू परिवार, पन्नालाल श्रीश्रीमाल परिवार, राजेंद्र सुनील डॉ. अनिल श्रीश्रीमाल परिवार, महावीरचंद पदमचंद कांकरिया परिवार (चेन्नई) ने श्रावकों का तिलक लगाकर धर्मसभा में स्वागत किया। उपाध्याय प्रवर ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि इस राग के कारण कोई पदार्थ हमें प्रिय लगता है। लेकिन पदार्थ न प्रिय है और न ही अप्रिय है, क्योंकि जो पदार्थ किसी को प्रिय लगता है वही पदार्थ किसी को अप्रिय लगता है। पदार्थ केवल पदार्थ है, प्रिय-अप्रिय व्यक्ति के राग और द्वेष के कारण होता है। इस राग-द्वेष के बिना यदि इन्द्रियां प्रवृत्त हो जाएँ तो किस सीमा तक पहुंचा सकते है। आखें जब भोग में लग जाती हैं तो केवल चमड़ी दिखती है। यदि ज्ञान में लग जाएं तो किसी की औरा (लेश्या) को देखा लेती हैं। कान यदि भोग में लग जाएं तो केवल सुनाई देने वाले शब्दों को सुनते हैं, ज्ञान संपन्न हो जाएं तो मन की बात भी सुन सकते हैं। इसे लेकर उपाध्याय प्रवर ने अपने गुरुदेव की एक पसंदीदा कहानी सुनाई। अफगानिस्तान का एक बादशाह अपने हाकिम के हाथों एक सुरमा राजा भोज के लिए भिजवाया। सुरमा थोड़ा सा था, केवल दो आँखों में लगाया जा सकता था। राजा भोज के एक राजवैद्य थे, जिनकी नेत्र ज्योति लगभग जा चुकी थी। हाकिम राजा भोज के दरबार पहुंचा और उसने सुरमा भेंट करते हुए कहा कि इस सुरमे को जो अपनी आँखों में लाग लेगा उसकी नेत्र ज्योति लौट जायेगी। राजा भोज ने वह सुरमा अपने राजवैद्य को दिया। राजवैद्य ने एक आंख में सुरमा लगाया तो उनकी एक आंख की ज्योत लौट आई। लेकिन उन्होंने बाकी बचा सुरमा अपनी जीभ में रख लिया। राजा भोज ने कहा कि आप ये क्या कर रहे हैं, वैद्य ने कहा कि मैं इस सुरमे के रसायन को चख रहा हूं। इसके कुछ दिनों बाद राजवैद्य ने हमीम को एक बड़ी शीशी देते हुए कहा कि यह राजा भोज की तरफ से आपके बादशाह के लिए भेंट है। उस शीशी में वही सुरमा था जो हाकिम उपहार के रूप में लाया था। राजवैद्य ने अपनी जीभ की इन्द्रियों को इतना जागृत कर लिया था कि उसने सुरमे के 50 घटकों को चखने मात्र से पहचान लिया था, कौन सा रसायन किस मात्रा में मिला है वह भी जान लिया था।

उपाध्याय प्रवर ने कहा कि हम चाहें तो अपनी इन्द्रियों को जागृत कर सकते हैं, ऐसे ही मन का है। लेकिन प्रमाद के कारण हम इसका उपयोग करने की बजाय हम कर्मों का बंद कर लेते हैं। यही कर्मों का बंद जीवन को उलझा कर रख देता है। कर्म का एक विज्ञान है, कैसे हमने ही हमारा प्रोग्राम बनाया है। मैं आज जैसा हूं, उसका जिम्मेदार मैं स्वयं हूं। अपने भाव, परिस्थिति, मनोस्थिति के लिए मैं खुद जिम्मेदार हूं। ये प्रोग्राम मैंने ही बनाया है, अनजाने में बनाया है, और इसके कारण मैं उसमे जकड़ा हुआ हूँ। परमात्मा का एक सूत्र है कि जो प्रोग्राम बना सकता है उसे मिटा भी सकता है, उसे सुधार भी सकता है। ये परमात्मा का एक रहस्य है, कि आप अपने कर्म को बदल सकते हैं। परमात्मा कहते हैं कि जीवन को समझना है तो कर्म को समाज लें। आसमान में चलने वाले ग्रहों की गति को बदला नहीं जा सकता है, लेकिन विवेक का उपयोग करें तो कर्म की गति को बदल सकते हैं। 8 कर्म हैं, और दो प्रकार हैं। एक अंदर का चरित्र बनाता है और दूसरा बाहर के चरित्र का निर्माण करता है। शरीर की रचना कैसी होगी, इन्द्रियां कैसी होगी, यह तय करता है नामकर्म। आपका स्वर कैसा होगा, बोली कैसी होगी, यह तय करता है नाम कर्म। नाम कर्म दो प्रकार के है: शुभ और अशुभ। अगर मन वचन और काया में सामंजस्य हो गया तो शुभ नामकर्म का बंद होता है। और अगर यह सामंजस्य नहीं हुआ तो अशुभ नामकर्म का बंद होता है। अर्थात जो मन में है, वह जुबान पर नहीं आता है। यश-अपयश मिलना भी नामकर्म पर निर्भर करता है। यदि मन-वचन-काया एक ही दिशा पर चल पड़ी तो यश नामकर्म का बंद होता है।

आज के लाभार्थी परिवार :
रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने बताया कि 11 नवंबर के लाभार्थी परिवार हैं विजयकुमार राजकुमार वीर राज बोथरा परिवार (राजिम-रायपुर), सहयोगी लाभार्थी परिवार हैं श्रीमती मालती-हेमंत सेठ परिवार। श्रीमद उत्तराध्ययन श्रुतदेव आराधना के लाभार्थी बनने के लिए आप रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा से संपर्क कर सकते हैं।

शुरू हुआ महावीर निर्वाण कल्याणक का तेला
ललित पटवा ने बताया कि प्रभु महावीर की भक्ति के साथ 10 नवंबर से महावीर निर्वाण कल्याणक का तेला शुरू हो गया है। वहीं आज दोपहर 3 से 4 बजे तक सुधर्मस्वामी, इंद्रभूति गौतम और भगवान् महावीर की भक्ति शुरू हुई। 11 नवंबर से परमात्मा के समोशरण की आराधना शुरू होगी। धर्मसभा में गौतमपात्र की स्थापना हो गई है, उपाध्याय प्रवर ने श्रावकों से निवेदन किया है कि इस पात्र में सहपरिवार सूखा मेवा समर्पित करना है, जिसे महावीर निर्वाण कल्याणक के शिखर दिवस पर प्रसादी के रूप में वितरित किया जाएगा। वहीं उपाध्याय प्रवर ने सकल जैन समाज को अपने-अपने घरों में चरम और परम समोशरण की साधना शुरू करने का आग्रह किया है। यह साधना 11 नवंबर की सुबह 5 बजे से शुरू करनी है। अपने घर में भावपूर्वक राजा पुण्यपाल की सभा के समोशरण का निर्माण करना है। 48 घंटे के समोशरण का कार्यक्रम सभी के घरों में शुरू होगा। 13 नवंबर को सुबह 5 बजे से लालगंगा पटवा भवन में महावीर निर्वाण कल्याणक की आराधना शुरू होगी। निर्वाण कल्याणक की आराधना के लिए सकल जैन समाज को आमंत्रण है।

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