मुनि गजसुकुमाल के आख्यान क्रम को आचार्यश्री ने किया वर्णित….. मंदता व मोह की प्रबलता साधुत्व में बाधक : महातपस्वी महाश्रमण

मुनि गजसुकुमाल के आख्यान क्रम को आचार्यश्री ने किया वर्णित….. मंदता व मोह की प्रबलता साधुत्व में बाधक : महातपस्वी महाश्रमण

-आगमवाणी से निरंतर लाभान्वित हो रही जनता

सूरत गुजरात (अमर छत्तीसगढ) 20 अगस्त।

डायमण्ड नगरी सूरत वर्तमान में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के देदीप्यमान महासूर्य, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी के आध्यात्मिक आलोक से आलोकित हो रही है। देश-विदेश से भले ही लोग सूरत शहर में हीरे और कपड़े के लिए व्यवसाय के लिए पहुंचते होंगे और यहां की चकाचौंध देखकर हर्षित होते होंगे, वर्तमान समय तो देश ही दुनिया के विभिन्न देशों से श्रद्धालु केवल मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी के दर्शन करने व उनकी कल्याणी वाणी का श्रवण करने के लिए पहुंच रहे हैं। श्रद्धालुओं की उपस्थिति से चतुर्मास स्थल तीर्थस्थल जैसा बना हुआ है।

प्रतिदिन की भांति अबाध रूप से महावीर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालु जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि आयारो आगम में बताया गया है कि कई भव्य आत्माएं संयम जीवन को स्वीकार कर लेती हैं, दीक्षित हो जाती हैं। उनमें से कई चारित्रात्माएं साधुपन को छोड़कर वापस गृहस्थ भी बन जाती हैं। प्रश्न हो सकता है कि ऐसा क्यों होता है? इसके दो कारण बताए गए हैं- एक कारण मति मंदता और दूसरा कारण मोह का आवरण है।

जो मंद होते हैं, जिनका चिंतन-मनन गहरा नहीं होता, एकबार उत्साह में साधु तो बन गए, किन्तु जब बाह्य जगत को देखने से मन में चिंतन बदलता है तो वह पुनः गृहस्थावस्था की ओर लौट जाता है। दूसरा कारण होता है कि आदमी को चिंतनशील होता है, सोच अच्छी होती है, किन्तु मोह के कारण वह साधुवस्था को छोड़कर गृहस्थ बन जाता है।

जिस प्रकार तेजस्वी सूर्य के समाने बादल आ जाते हैं तो उसकी तेजस्विता मंद हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा की तेजस्वी चेतना के आगे मंदता और मोह रूपी बादल आ जाते हैं तो आत्म चेतना की तेजस्विता मंद हो जाती है। आदमी के भीतर जब वैराग्य की भावना से प्रबल मोह का भाव हो जाता है तो वे गृहस्थावस्था में चले जाते हैं।

उनमें से अनेक ऐसे भी हो सकते हैं तो बाहर जाने के बाद पुनः पश्चाताप भी करते हैं। कई बार लोग पुनः आकर दीक्षित हो जाते हैं और फिर जीवन का अंतिम श्वास साधुपन में लेते हैं। कई बार दुबारा आकर भी पुनः चले जाते हैं तो मन की मंदता और मोह की प्रबलता उन्हें ऐसा करने में सहायक बन जाती है।

भगवान महावीर के समय मुनि मेघकुमार के मन में भी एक बार विचलन आया था, किन्तु उन्हें पुनः संभाल लिया था। और पूर्वजन्म का स्मरण होते ही पुनः साधुत्व में सुस्थिर हो गए। कभी विचलन की स्थिति बने तो उसे संभालने का प्रयास करना चाहिए। साधुपन का आध्यात्मिक वैभव को छोड़कर चले जाने वाला मानों कष्ट को प्राप्त हो सकता है। बचपन में साधुपन को स्वीकार कर अखण्ड रूप में पालन कर लेना बहुत बड़ी बात होती है। मानों वह जीवन धन्य हो जाता है, जो अखण्ड रूप में साधना के पथ पर आगे बढ़ जाता है। प्रयास यह करना चाहिए कि साधुपन के प्रति निष्ठा और मनोभाव पुष्ट बना रहे ताकि आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।

मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने ‘चन्दन की चुटकी भली’ पुस्तक से आख्यान का वाचन किया। तदुपरान्त कार्यक्रम में तेरापंथ किशोर मण्डल-सूरत चौबीसी के सातवें सुपार्श्व स्तवन का संगान कर

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