मन में कुछ, वचन में कुछ, प्रकट में कुछ प्रवृत्ति ही मायाचारी है- पंडित जयदीप जैन शास्त्री…. धार्मिक कार्यक्रम में नेमि-राजुल का वैराग्य के रूप में बड़े ही भव्य एवं मनोरम ढंग से प्रस्तुति

मन में कुछ, वचन में कुछ, प्रकट में कुछ प्रवृत्ति ही मायाचारी है- पंडित जयदीप जैन शास्त्री…. धार्मिक कार्यक्रम में नेमि-राजुल का वैराग्य के रूप में बड़े ही भव्य एवं मनोरम ढंग से प्रस्तुति

बिलासपुर(अमर छत्तीसगढ) 11 सितंबर। दशलक्षण पर्व जैन धर्म का पवित्र पर्व है। इसे दिगंबर जैन समाज के श्रद्धालु हर साल भाद्रपद शुक्ल पक्ष के दौरान पंचमी तिथि से अनंत चतुर्दशी तक श्रद्धा से मनाते हैं। शहर के सभी तीनों जैन मंदिरों में गगनभेदी मंत्रोच्चारण के साथ धार्मिक विधियां पूरी की जा रही हैं।

दस दिनों तक जैन अनुयायी आत्मकल्याण के मार्ग पर धर्मों का पालन करते हैं, साधु संतों की वाणी को आत्मसात करने में लगे रहते हैं। जैन परंपरा अनुसार दशलक्षण महापर्व के पहले दिन से लगातार उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन तथा उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है।

दशलक्षण महापर्व के उत्तम आर्जव धर्म के दिन क्रांतिनगर मंदिर में प्रथम शांतिधारा करने का सौभाग्य श्रीमंत सेठ विशाल जैन, कैलाश चंद्र जैन, महेन्द्र जैन, डॉ. जितेन्द्र जैन, सुभाष चंद्र जैन, पंकज जैन एवं उनके परिवार जनों को प्राप्त हुआ। सरकण्डा मंदिर जी में यह सौभाग्य के. के. जैन, राजेन्द्र जैन, वीरेन्द्र सेठ, प्रमोद जैन, महेन्द्र जैन, विजय जैन, मनोज जैन, प्रसन्न जैन एवं उनके परिवारजनों को मिला। सन्मति विहार जिनालय में यह सौभाग्य अनुराग जैन, अरविंद जैन एवं उनके परिवार को प्राप्त हुआ। अभिषेक उपरान्त दशलक्षण महापर्व के दस अर्ध, सोलहकारण, पंचमेरु की पूजन अत्यंत भक्ति भाव के की गई।

श्री दिगंबर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर से पधारे पंडित जयदीप जैन शास्त्री जी ने आर्जव धर्म के बारे में समझाया, उन्होंने कहा कि उत्तम आर्जव धर्म जैन धर्म के दस धर्मों में से एक है, जिसे “दस धर्मों” या “दश धर्म” के रूप में जाना जाता है। आर्जव का अर्थ होता है सरलता, सच्चाई और आंतरिक एवं बाह्य रूप से ईमानदार होना। मन में कुछ, वचन में कुछ, प्रकट में कुछ प्रवृत्ति ही मायाचारी है।

इस माया कषाय को जीतकर मन, वचन और काय की क्रिया में एकरूपता लाना उत्तम आर्जव धर्म है। उत्तमआर्जव धर्म को अपनाने से मनुष्य निष्कपट और राग द्वेष से दूर होकर सरल हृदय से जीवन व्यतीत कर सकता है। साथ ही उन्होंने कहा कि आत्मा का स्वभाव ही सरल स्वभाव है, इसलिये प्रत्येक प्राणी को सरल स्वभाव रखना चाहिए।

उन्होंने कहा कि उत्तम आर्जव को जीवन में अपनाने से हम अपने भीतर के छल-कपट से मुक्त होकर सत्य और सरलता के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं। उदाहरण देते हुए उन्होंने समझाया कि सीधे पेड़ों से कोई भी उसकी आसानी से बन जाती है परन्तु टेढ़े पेड़ों से नहीं, उसी प्रकार मानव को भी सरल, स्वभावी रहना चाहिए। शील स्वभाव वाले व्यक्ति शीघ्र ही तप, संयम के साथ बिना मायाचारी किए धर्म ध्यान करते हैं तो मोक्ष की प्राप्ति भी कर लेते हैं।

धार्मिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में उत्तम आर्जव धर्म के दिन बिलासपुर जैन समाज के स्वाध्याय समूह के श्रावकों ने जैन समाज के 22वें तीर्थकर नेमिनाथ जी के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उनकी बारात के वृतांत को एक नाटिका नेमि-राजुल का वैराग्य के रूप में बड़े ही भव्य एवं मनोरम ढंग से प्रस्तुत किया। जैन शास्त्र के अनुसार नेमि राजा का विवाह जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की सर्वांग सुन्दरी राजुलमती के साथ होना निश्चित हुआ था। नगर में खुशियां छा जाती हैं, बारात जूनागढ़ पहुंचती है।

राजा उग्रसेन ने सभी बारातियों का खूब अच्छे से स्वागत-सत्कार किया। दो दिन पश्चात् नेमि स्वामी अपने मित्रों, मंत्रियों और वहां के नागरिकों के साथ भ्रमण हेतु निकले, थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्होंने देखा कि खूब सारे पशु कांटेदार बाड़े में बन्द हैं और भूख-प्यास के मारे चिल्ला रहे हैं, बिलबिला रहे हैं, मूर्छा खा-खाकर इधर-उधर गिर पड़ रहे हैं। उनकी यह दशा देखकर राजकुमार नेमि के पूछने पर सैनिकों ने बताया कि आपके विवाह में जो म्लेच्छ राजा लोग आए हैं, उनके भोजन के लिए इनको यहाँ इकट्ठा करवाया है।

उसकी बात सुनकर राजकुमार नेमि ने कहा कि इस असार संसार को धिक्कार है, जहाँ तृष्णावश प्राणी इतने बड़े-बड़े पाप कर डालते हैं। पंचेन्द्रिय के विषय भोग और सात व्यसनों में फंसकर ही यह जीव घोर नरक के दुख उठाता है। ऐसा सोचते–सोचते नेमिनाथ स्वामी को वैराग्य हो जाता है और वह बारह भावनाओं का चिन्तन करने लगते हैं, और अपने सभी आभूषण एक-एक कर उतारकर वैराग्य लेकर गिरनार पर्वत पर चले जाते हैं।

ज़ब राजकुमारी राजुल को यह बात पता चलती है कि उनका जिनसे विवाह होने वाला था, उन्होंने वैराग्य ग्रहण कर लिया है, तो राजुल भी सोलह श्रृंगार उतारकर श्वेत वस्त्र धारण कर वन की ओर चली जाती है और नेमिनाथ की शिष्या बन जाती है। इन्हीं नेमि और राजुल ने संयम पथ पर चलकर संसार को अनेक शिक्षाएँ प्रदान की, उनमें से सबसे प्रमुख है कि कभी भी जीव हिंसा न करें। अपनी जिह्वालोलुपता के लिए मूक, निरीह पशुओं का वध नहीं करना चाहिए।
इस आकर्षक नाटिका का निर्देशन मंगला जैन ने किया।

स्वाध्याय समूह के सत्येंद्र, निधि, संजय, ज्योति, सीमा, मनोरमा, विधि, निधि, नितिन, आशु, रितिका, संगीता, प्रिया, रोली, दिया, सपना, प्राची और एकता ने अपने अभिनय से इस नाटिका को जीवन्त कर दिया।

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