सूरत गुजरात (अमर छत्तीसगढ) 16 सितंबर ।:
सोमवार को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य अनुशास्ता परम पूज्य आचार्यश्री भिक्षु का 222वां चरमोत्सव भव्य एवं आध्यात्मिक रूप में समायोजित हुआ। भिक्षु स्वामी के वर्तमान पट्टधर की मंगल सन्निधि में उपस्थित हजारों श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने पावन पाथेय के साथ अपने आद्य अनुशास्ता के कर्तृत्वों को भी जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
महावीर समवसरण में आयोजित आज का मुख्य प्रवचन कार्यक्रम तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य अनुशास्ता आचार्यश्री भिक्षु के 222वें चरमोत्सव के रूप में समायोजित हुआ। तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान तथा आचार्यश्री भिक्षु के परम्पर पट्टधर आचार्यश्री ने समुपस्थित विशाल जनमेदिनी को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आज भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी है। आज एक आचार्य का चरम दिवस है। हमारे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य, प्रथम आचार्य महामना आचार्यश्री भिक्षु का 221 वर्ष पूर्व राजस्थान के सिरियारी में महाप्रस्थान हुआ था। हमारे चतुर्विध धर्मसंघ में आचार्य का सर्वोच्च स्थान होता है। इस परिप्रेक्ष्य में आचार्य धर्मसंघ में इन्द्र के समान शोभायमान होते हैं।
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आचार्य में श्रुत व ज्ञान सम्पन्नता भी होना चाहिए। शास्त्रीय ज्ञान, तेरापंथ परंपरा का ज्ञान होना चाहिए। अध्ययनशीलता, स्वाध्यायशीलता भी हो। ज्ञान का जितना परावर्तन होता है, उससे ज्ञान में नवीनता भी आ सकती है। हम आचार्यश्री भिक्षु को देखें तो उनमें श्रुत सम्पन्नता थी। वे स्वयं ऐसे ज्ञानी पुरुष थे, जो शिष्यों और अन्य लोगों को दृष्टांत से समझाते और ईबताते थे। व्याख्यान भी देते थे और लोगों को समझते थे।
परम पूजनीय भिक्षु स्वामी के श्रुत को देखने के लिए उनके ग्रन्थों को देखा जाए तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है। खुद की बुद्धि और प्रतिभा तीक्ष्ण होती है तो थोड़ा पढ़ने से भी अधिक ज्ञान प्रकाशित हो सकता है। आचार्य भिक्षु में बुद्धि, प्रतिभा विशेष थी। आचार्य भिक्षु के जीवन में विरोध-संघर्ष भी आए, किन्तु वे उसमें भी आगे बढ़ते रहे। केलवा की अंधेरी ओरी आदि अनेक संघर्ष आए।
आचार्य भिक्षु के समग्र जीवन को देखने से उनके जीवन में बुद्धिमत्ता और श्रुत सम्पन्नता का दर्शन होता है। उनकी क्रांति का एक बिन्दु आचार भी रहा था। आज के दिन सिरियारी में उनका महाप्रयाण हुआ। तेरापंथ धर्मसंघ के जनक थे आचार्य भिक्षु। वि.सं. 1860 में सिरियारी में अंतिम चतुर्मास हो रहा था। वे स्वावलम्बी वृत्ति के थे। वे अपनी गोचरी स्वयं करते थे।
स्वास्थ्य में थोड़ी गड़बड़ी हुई। भाद्रव महीना शुरु हुआ तो शरीर में थोड़ी कठिनाई आने लगी। सामने पर्युषण, तीनों समय व्याख्यान देना होता था। स्वास्थ्य की प्रतिकूलता को देखते हुए भाद्रव शुक्ला चतुर्थी आ गई तो उन्होंने जीवन को छोड़ने का निर्णय किया और एकादशी को फरमाया कि अब मेरा आहार करने का भाव नहीं है।
औषधि रूप में अमल और पानी का आगार रखकर आहार का परित्याग किया। बारस को पानी को छोड़कर तीनों आहारों का त्याग कर बेला किया। फिर कच्ची हाट से चलकर पक्की हाट में पधारे। फिर बारस को ही उन्होंने अनशन स्वीकार किया। त्रयोदशी के दिन वे देह मुक्त आत्मा बन गए। भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के दिन स्वामीजी का महाप्रयाण हो गया था।
हमारे धर्मसंघ के प्रथम आचार्य थे, जो आज के दिन मानों वे अदृश्य हो गए। उनके पीछे तेरापंथ धर्मसंघ को भारमलजी स्वामी दूसरे आचार्य के रूप में प्राप्त हुए। इस प्रकार हमारे धर्मसंघ की आचार्य परंपरा बढ़ती आ रही है। अतीत में आचार्यों का एक दशक सम्पन्न हो गया है। आचार्य भिक्षु पर कितने गीत प्राप्त होते हैं। सिरियारी में भी आज कार्यक्रम होता है। यहां भी धम्म जागरणा का कार्यक्रम होना है। इस दौरान आचार्यश्री ने आज के दिन पर स्वरचित गीत का संगान किया।
आज के अवसर पर मुख्यमुनि महावीरकुमारजी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। तेरापंथ युवक परिषद-सूरत ने गीत का संगान किया। मुनिवृंद ने भी इस अवसर पर गीत का संगान किया। इस दौरान जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित ‘आचार्य भिक्षु तत्त्व साहित्य’ और ‘आचार्य भिक्षु आख्यान साहित्य’ को जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों आदि ने पूज्यप्रवर के समक्ष लोकार्पित की। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने आशीष प्रदान किया। कार्यक्रम के अंत में आचार्यश्री स्वयं पट्ट से नीचे खड़े हुए तो चतुर्विध धर्मसंघ अपने स्थान पर खड़ा हुआ और संघगान के साथ 222वें चरमोत्सव के मुख्य कार्यक्रम सुसम्पन्न हुआ।