सखी ग्रुप द्वारा “अग्निसुता” नामक लघुनाटिका का मंचन किया गया…. बच्चों से अभिषेक, शांति धारा, आरती एवं सामूहिक पूजा कराई गई… परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही आकिचन्य धर्म – पंडित जयदीप शास्त्री

सखी ग्रुप द्वारा “अग्निसुता” नामक लघुनाटिका का मंचन किया गया…. बच्चों से अभिषेक, शांति धारा, आरती एवं सामूहिक पूजा कराई गई… परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही आकिचन्य धर्म – पंडित जयदीप शास्त्री

बिलासपुर(अमर छत्तीसगढ) 17 सितंबर। दशलक्षण महापर्व के नवमें दिन बिलासपुर के तीनों जैन मंदिरों में उत्तम आकिचन्य धर्म की पूजा की गयी। बच्चो में जिन संस्कार अंकुरित करने और धर्म प्रभावना करने के उद्देश्य से सरकण्डा जैन मंदिर जी में बच्चों से अभिषेक, शांति धारा, आरती एवं सामूहिक पूजा करवाई गयी। पूजा करने के बाद सभी बच्चों में एक अलग ही ऊर्जा नजर आयी।

दशलक्षण पर्व के नौवें दिन उत्तम आकिचन्य धर्म पर प्रवचन करते हुए सांगानेर से पधारे पंडित जयदीप शास्त्री जी ने कहा कि जो व्यक्ति यह चिंतन करता है कि ‘मेरी आत्मा के सिवाय संसार का रंचमात्र भी बाहरी पदार्थ मेरा नहीं है’ वास्तव में यही आकिचन्य धर्म की आराधना है। आकिचन्य धर्म आत्मा की उस दशा का नाम है जहां पर बाहरी सब छूट जाता है किंतु आंतरिक संकल्प विकल्पों की परिणति को भी विश्राम मिल जाता है। बाहरी परित्याग के बाद भी मन में ‘मैं’ और ‘मेरे पन’ का भाव निरंतर चलता रहता है, जिससे आत्मा बोझिल होती है और मुक्ति की ऊर्ध्वगामी यात्रा नहीं कर पाती।

उन्होंने इसका अभिप्राय समझते हुए कहा कि जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए हमें भार रहित होना या हल्का होना जरूरी होता है, उसी प्रकार सिद्धालय की पवित्र ऊंचाइयां पाने के लिए हमें आकिचन्य या एकदम खाली होना आवश्यक है। यह आत्मा,संकल्प, विकल्प रूप कर्तव्य भावों से संसार सागर में डूबती रहती है। परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही आकिचन्य धर्म की भावधारा है। जहां पर भीड़ है, वहां पर आवाज, आकुलता और अशांति है किंतु एकाकी एकत्व के जीवन में न कोई आवाज है और न कोई आकुलता और न अशांति।

हम जहां पर जी रहे हैं, वह कर्तव्य तो करना ही है किंतु यथार्थता का बोध हमें रहना चाहिए। जिस प्रकार सांझ घिरते-घिरते सभी पक्षी एक तरुवर पर आकर विश्राम कर लेते हैं, किंतु सुबह होते ही अपने-अपने कार्य के लिए भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार संसार में हम सभी का निवास है। पुराने किसी संयोग की वजह से आप यहां एकत्रित हुए हैं किंतु आगे की यात्रा तो आपको एकाकी ही करनी है। आज का यह धर्म, जीवन की यात्रा को एकाकी आगे बढ़ाने का धर्म है जिसमें अपने और पराए का भेद समझ कर निर्विकल्प र्निद्वंद्व एकाकी आत्मा की अनुभूति में उतरना पड़ता है।

उत्तम आकिचन्य हमें मोह को त्याग करना सिखाता है। आत्मा के भीतरी मोह जैसे गलत मान्यता, गुस्सा, घमंड, कपट, लालच, मजाक, पसंद नापसंद, डर, शोक, और वासना इन सब मोह का त्याग करके ही आत्मा को शुद्ध बनाया जा सकता है। सब मोह, प्रलोभनों और परिग्रहों को छोडकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है।

सांध्यकालीन समय में तीनो मंदिर जी में संगीतमय आरती की गयी। धार्मिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में सखी ग्रुप द्वारा अग्निसुता नामक लघुनाटिका का मंचन किया गया। इस नाटिका द्वारा समाज को यह सन्देश दिया गया कि नारी का सम्मान सर्वोपरि है।

इस नाटिका के माध्यम से नारी के अपमान की व्यथा, उसके भूतपूर्व एवं वर्तमान की परिस्थितियों का सांयोगिक चित्रण करके यह बतलाया गया पूर्व की भांति वर्तमान समाज में भी नारी की स्थिति सदैव असुरक्षा से घिरी हुई है, उसे अपमान का सामना करना पड़ता है। अग्निसुता नामक या लघु नाटिका महाभारत पर आधारित थी, जिसमें द्रौपदी की विवशता, पांडवो की निराशा व कौरवों के साथ संघर्ष का चित्रण किया गया। इस नाटिका के जरिये यह सन्देश दिया गया कि वर्तमान समय में बेटों को पढ़ाने और सिखलाने की आवश्यकता है ताकि वे नारी मात्र में अपनी बहन व बेटी का स्वरूप देख पाएं। हर क्षेत्र में नारी का सम्मान सुनिश्चित हो।

इस कार्यक्रम का निर्देशन एवं संयोजन सीमा जैन और और श्वेता जैन द्वारा किया गया। मंच की व्यवस्था रीना, शालिनी, संगीता, मनीषा, ने संभाली। नाटिका में सीमा जैन ने जहाँ द्रौपदी की भूमिका अदा, वहीं श्वेता जैन ने अपने अभिनय से दुर्योधन के किरदार को जीवंत कर दिया। इस नाटिका में सीमा, श्वेता, मनोरमा, ऋतु, भावना, अनवी, ज्योति, रंजीता, निशा, प्रगति, अंजू, मोनिका, सपना, विद्या,निधि, विधि, डॉ. मोनिका, विकास, वरुण एवं नितिन ने सराहनीय अभिनय कर समाज को एक बहुत ही सुंदर सन्देश दिया।

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