दशलक्षण महापर्व के पहले दिन उत्तम क्षमा …..क्रोध प्रत्येक जीव का सबसे बडा शत्रु है, उसे जीतना ही उत्तम क्षमा – पंडित रवि जैन

दशलक्षण महापर्व के पहले दिन उत्तम क्षमा …..क्रोध प्रत्येक जीव का सबसे बडा शत्रु है, उसे जीतना ही उत्तम क्षमा – पंडित रवि जैन

बिलासपुर (अमर छत्तीसगढ़) दुनिया में जितने भी पर्व हैं, उन सभी का किसी न किसी घटना अथवा महापुरुष से संबंध है। लेकिन दशलक्षण पर्व का संबंध किसी घटना अथवा महापुरुष से नही है। देश-काल, क्षेत्र विशेष, जाति-धर्म से भी इसका कोई संबंध नही है। यह पर्व तो शाश्वत है, सार्वजनिक तथा सार्वभौमिक है। क्योंकि यह पर्व आत्मा की शुद्धि का पर्व है, इसलिए इसे महापर्व कहते हैं। यह पर्व तो सभी पर्वों का सम्राट माना जाता है। सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में इसका उल्लेख मिलता है। यह जैनों का सबसे पवित्र पर्व है। दिगम्बर सम्प्रदाय में यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पचंमी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है। इन दिनों में जैन मंदिरों में खूब आनंद छाया रहता है। प्रतिदिन प्रातः काल से ही सब धर्मावलम्बी मंदिरों में पहुँच जाते हैं और बड़े आनंद के साथ भगवान का पूजन करते हैं।

दिगंबर जैन समाज के दशलक्षण पर्व के पहले दिन बिलासपुर के तीनों जैन मंदिरों में प्रातः 6:30 बजे से अभिषेक और पूजन प्रारम्भ हुए। इस अवसर पर श्री श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर राजस्थान से पधारे पंडित रवि जैन जी ने अपने प्रवचन में दशलक्षण धर्म के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि दशलक्षण पर्व के दिनों में क्रमशः उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन तथा उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना की जाती है। इन दस धर्मों के कारण इस पर्व को दशलक्षण पर्व कहते हैं, क्योंकि धर्म के उक्त दस लक्षणों का इस पर्व में खासतौर से आराधना किया जाता है। ये सभी आत्मा के धर्म हैं, क्योंकि इनका सीधा सम्बंध आत्मा के कोमल परिणामों से हैं। इस पर्व का एक वैशिष्ट्य है कि इसका सम्बंध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा के गुणों से है। इसप्रकार यह गुणों की आराधना का पर्व है। इन गुणों से एक भी गुण की परिपूर्णता हो जाय तो मोक्ष तत्व की उपलब्धि होने में किंचित भी संदेह नहीं रह जाता है।


एक बात और खास है कि इस सभी के साथ उत्तम शब्द जरूर जुडा होता है। यानि ये सब लक्षण उत्तम ही होने चाहिए। उत्तम क्षमा में बताया गया है कि क्रोध प्रत्येक जीव का सबसे बडा शत्रु है, उसे जीतना ही उत्तम क्षमा है। उसी तरह किसी भी प्रकार के मान -अभिमान को समाप्त करने को उत्तम मार्दव धर्म की आराधना कहते हैं तथा अपने हृदय को मायाचारी से बचाकर सरल बनाने को ही उत्तम आर्जव धर्म की आराधना कहते हैं। इसी क्रम में लोभ को त्याग कर जीवन में शुचिता यानि पवित्रता को अपनाना ही उत्तम शौच धर्म की आराधना है, सभी के लिए हित, मित व प्रिय वचन बोलना ही उत्तम सत्य धर्म की आराधना है, अपनी आत्मा के विकारी भावों को नष्ट करना ही उत्तम संयम धर्म की आराधना है। उत्तम तप धर्म आराधना का मतलब है इच्छाओं का निषेध कर रागादि भावों को जीतकर अपने आत्मस्वरूप में लीन होना तथा
पर द्रव्यों से मोह छोडकर उनका त्याग करना ही उत्तम त्याग धर्म की आराधना है। नौवा धर्म है उत्तम आकिंचन धर्म जिसमें मेरी आत्मा के सिवाय किंचित मात्र भी पर पदार्थ मेरा नही है, ऐसा चिंतन करना ही उत्तम आकिंचन धर्म की आराधना है और अपनी आत्मा में रमण करना ही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना है।

दशलक्षण महापर्व के पहले दिन उत्तम क्षमा धर्म के बारे में बताते हुए पंडित जी ने कहा कि क्रोध एक कषाय है, जो व्यक्ति को अपनी स्थिति से विचलित कर देती है। इस कषाय के आवेग में व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है और हित अहित का विवेक खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। लकड़ी में लगने वाली आग जैसे दूसरों को जलाती ही है, पर स्वयं लकड़ी को भी जलाती है। इसी तरह क्रोध कषाय को समझ लेना और उस पर विजय पा लेना ही क्षमा धर्म है। मनीषियों ने कहा है कि क्रोध अज्ञानता से शुरू होता है और पश्चाताप से विचलित नहीं होना ही क्षमा धर्म है। पार्श्वनाथ स्वामी और यशोधर मुनिराज का ऐसा जीवन रहा कि जिन्होंने अपनी क्षमा और समता से पाषाण हृदय को भी पानी-पानी कर दिया। शत्रु-मित्र, उपकारक और अपकारक दोनों के प्रति जो समता भाव रखा जाता है वही साधक और सज्जन पुरुषों का आभूषण है। शांति और समता आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि कषाय का आवेग उसके स्वभाव को ढंक देता है। पानी कितना भी गरम क्यों न हो पर अंतत: अपने स्वभाव के अनुरूप किसी न किसी अग्नि को बुझा ही देता है। अज्ञानी प्राणी अपने इस धर्म को समझ नहीं पाता। कषायों के वशीभूत होकर संसार में भटकता रहता है। इसलिए अपने जीवन में क्षमा को धारण करना चाहिए और नित्य यह भावना रखनी चाहिए।
इसीलिए कहा गया है कि –
सुखी रहे सब जीव, जगत में कोई कभी ना घबरावें।
बैर, पाप, अभिमान, छोड़, जग नित्य नए मंगल गावें।

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