आत्मा के भीतर होती है सारी कलाएं
राजनांदगांव(अमर छत्तीसगढ़) 8 सितंबर। जैन संत श्री हर्षित मुनि ने आज यहां कहा कि आत्मा के भीतर ही सारी कलाएं होती है। व्यक्ति किस कला में निपुण होना चाहता है ,यह उसके ऊपर निर्भर है। उन्होंने कहा कि सम्यक दर्शन में सर्वज्ञता की स्थिति प्राप्त करना सबसे बड़ी कला है। भगवान महावीर सर्वज्ञ थे। सर्वज्ञता यानि त्रिकाल देखना अर्थात लोकालोक के सभी को देखना है।
समता भवन में आज अपने नियमित प्रवचन में संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि आज हम विज्ञान के अनुसार भले ही चल रहे हैं किंतु आस्था पर आज भी हम निर्भर हैं। उन्होंने कहा कि तीर्थंकरों ने पहले ही बता दिया था कि वनस्पति में जीव है ,पानी में जीव है। बाद में साइंस भी इसे मानने लगा। उन्होंने कहा कि साइंस के सिद्धांत बदलते रहते हैं किंतु आस्था के सिद्धांत नहीं बदलते। उन्होंने कहा कि सर्वज्ञता प्राप्त करने की, सिद्धियां प्राप्त करने की सभी की इच्छा होती है। इसे प्राप्त करने के लिए पहले वितराग प्राप्त करना होता है तब कहीं जाकर सिद्धियां प्राप्त होती है। ज्ञान व शक्तियां उसी व्यक्ति को पचती जिसके मन में राग व द्वेष न हो। यदि यह हमने कर लिया तो सर्वज्ञता हम प्राप्त कर लेंगे। उन्होंने कहा कि उदासीनता, वितरागता सारी शक्तियों को खींच लाती है।
संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि स्वयं के प्रति थोड़ा गंभीर बने। हम यदि नवकार मंत्र का जाप करते हुए एकाग्र मन से ध्यान करें और एक बार भी यदि भगवान का चेहरा हमारे सामने आ जाता है तो समझो कि हम सफलता की सीढ़ियों तक पहुंच गए हैं। हम अपनी उपलब्धियों को सिद्धि मान लेते हैं जबकि सिद्धियां डिग्री से नहीं वितरागता से प्राप्त होती है। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति साधना जिस दृष्टि से और जिस लक्ष्य को सामने रखकर करता है वह उस लक्ष्य की ओर निश्चित ही बढ़ता है। साधना एकाग्रता से करें और राग – द्वेष को अपने से दूर रखने का प्रयास करें। यह जानकारी एक विज्ञप्ति में विमल हाजरा ने दी।