रायपुर(अमर छत्तीसगढ़)। न्यू राजेंद्र नगर स्थित महावीर स्वामी जिनालय में रविवार को जप-तप और साधना के क्रम में परम् पूज्य साध्वी स्नेहयशाश्रीजी म. सा. की निश्रा में साध्वी संवरनिधि म.सा. ने अपना 100वां आयंबिल पूरा किया है। आध्यात्मिक चातुर्मास समिति के अध्यक्ष श्रीमान विवेक डागा जी ने बताया कि साध्वीजी ने चातुर्मास शुरू होने के साथ ही अपना आयंबिल शुरू किया था जिसके 100 दिन रविवार को पूरे हो चुके हैं। साध्वी संवरनिधि की आयु 68 वर्षों की हैं। उन्होंने बिना नमक, मिर्च और तेल की सब्जियां और खाना खाकर अपना उपवास पूरा किया। चातुर्मास समिति के सदस्यों ने उनकी अनुमोदना कर वंदन किया है।
न्यू राजेंद्र नगर स्थित महावीर जिनालय में चल रहे भव्य आध्यात्मिक चातुर्मास के दौरान साध्वी स्नेहयशाश्रीजी ने रविवार को कहा कि हे वत्स तू क्यों चंचल बनता है। यह चंचलता तेरे विशाद का कारण बनेगी। जो व्यक्ति को स्वयं को पहचान लेता है उसकी चंचलता थम जाती है और वह भव से तिर जाता है। आप लोग कहते है कि यह मैंने किया है। यह मैं कौन है पता चल जाएगा तो हमारा भव भ्रमण रूक जाएगा। आत्मा कहती है कि हे जीव ये हांड-मांस के पिंजरे में, मैं नहीं इसके पीछे छिपा तत्व तू है। यह शरीर तेरा भी नहीं है, यह शरीर तो बिगड़ने वाला है, इसका पर्याय क्षण-क्षण में बदलते रहता है।
साध्वीजी कहती है कि 18 देशों के राजा कुमारपाल अपनी आत्मा को पहचानने के लिए हर दिन 32 प्रकार के स्वाध्याय करते थे। वे योगशास्त्र का 12 अध्याय और वीतरागस्तोत्र का 20 अध्याय करते थे। इसके साथ ही सुबह-शाम प्रतिक्रमण भी करते थे। जब जमाना हाथों से काम करने का था तब उस दाैरान लोग अपनी अात्मा के लिए समय निकाल लेते थे। आज का युग मशीनरी है। मशीनों ने अब हमारा सारा काम आसान कर दिया है। उसके बाद भी हमारे पास धर्म के लिए समय नहीं होता। धर्म के प्रति अब तक हमारी चेतना जागृत नहीं हो पाई है। जबकि मनुष्य गति ही ऐसी गति है जो आत्मा तत्व को पहचानने में सक्षम है। लोग सोचते है कि यह जन्म खाने-पीने और घूमने के लिए है। कितना भी स्वादिष्ट खाना खा लो, कितने भी देश घूम लो आखिर वापस तो अपने घर ही लौटना है। तक आपको लगेगा कि यह सुख सिर्फ 4 दिनों का था।
मेहनत करो, धर्म का लाभ मिलेगा
साध्वीजी कहती है कि एक बार की बात है। एक दंपती में सेठ और सेठानी होते है। सेठानी सुबह से उठ कर घर का सारा काम करती और दिनभर वह कुछ न कुछ काम में लगी होती है। खाना भी खुद ही बनाती और सेठ को भी अपने हाथों से खिलाती थीं। आटा गुंथने से लेकर सब्जी काटना और उसे बनाती भी वह खुद ही थीं। इसके बाद सेठ काे वह हर रोज अपने हाथों से खाना खिलाती थीं। फिर भी सेठ अलाली करत थे, वह कहते थे कि तुम बना तो रही हो और खिला भी अपने हाथों से रही हो लेकिन इसे चबाना तो मुझे पड़ता है, गिटकना मुझे होता है और पचाना भी मुझे ही होता है तो क्या मतलब तुम्हारा सुबह से उठकर इतनी मेहनत करने का। प्रसंग में संदेश यह है कि वर्तमान समय में कोई व्यक्ति इतना भी मेहनत नहीं करना चाहता है। साध्वीजी कहती है कि ठंड का दिन सबसे अच्छा होता है। इस दौरान खाने-पीने में भी स्वाद आता है और शरीर को तंदरूस्त रखने के लिए भी यह ठीक होता है। वैसे ही गर्मी के दिन, व्यापार के लिए श्रेयस्कर होते है। अपने बिजनेस को बढ़ाने के लिए गर्मी से बेहतर समय कोई नहीं होता। वैसे ही बारिश का मौसम चार महीनों का होता है, जिसे हम चातुर्मास के रूप में जानते है। इस समय आपका मन बिना बोले, बिना कुछ कहे ही उपवास में लग जाता है। यह धर्म का समय होता है। और एक बार जिसका स्वाद आपको लग जाए तो उसे बार-बार करने का मन करता है। धर्म में एक बार मन लगा तो लगातार वैसा ही करने को जी चाहता है। जैसे कि आप कोई मिठाई लेने गए और आपको वह बहुत अच्छा लगा तो आप दोबारा वहीं से खरीदारी करते हो। आपको जो स्वाद पसंद आ गया मतलब वह आपको जम गया।