डिजिटल मीडिया : बढ़ता प्रभाव, घटती जवाबदेही
नई दिल्ली (अमर छत्तीसगढ़) पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में ‘डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स एसोसिएशन’ की ओर से ‘फ्यूचर ऑफ डिजिटल मीडिया’ विषय पर एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन हुआ। कॉन्फ्रेंस में भाग लेने आए ऑस्ट्रेलिया के पूर्व संचार मंत्री और सांसद पॉल फ्लेचर ने एक समाचार पत्र को दिये गए अपने साक्षात्कार में कहा कि, “आने वाले दिनों में भारत डिजिटल की दुनिया में सबसे आगे होगा। अगले दस सालों में डिजिटल क्षेत्र में सबसे बड़ी संचार क्रांति होने वाली है।
बस इस दौरान सबसे ज्यादा सजगता और ध्यान फेक न्यूज़ को रोकने के साथ-साथ क्वालिटी कंटेंट और बिजनेस मॉडल को अपग्रेड करने की जरुरत होगी।” उनका मानना था कि भारत में डिजिटल मीडिया के लिए सबसे ज्यादा संभावनाएं हैं। इसकी वजह है कि भारत सरकार ने जिस तरीके से डिजिटल दुनिया को अपनाया है और देश के लोगों को अपनाने के लिए प्रेरित किया है, वह बेहद महत्वपूर्ण है।
फ्लेचर की इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारत डिजिटल उपयोग के मामले में विश्व का सिरमौर बनने वाला है। पिछले एक दशक में देश में डिजिटल मीडिया और डिजिटल सहूलियतों का इस्तेमाल बहुत तेजी से बढ़ा है। लेकिन, इस सबके बीच दो चीजों की अनुपस्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है- एक, विश्वसनीयता और दूसरी, जवाबदेही। ये दोनों ही चीजें, एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह हैं। एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं। यदि जवाबदेही तय होगी, तो डिजिटल मीडिया की विश्वसनीयता खुद-ब-खुद बढ़ जाएगी।
डिजिटल साक्षरता से बढ़ेगा जिम्मेदारी का अहसास
जहां तक जवाबदेही के अभाव का प्रश्न है, तो इसकी कई वजह हैं। पहली वजह है वर्तमान समय में उपलब्ध बेहद सस्ती और सर्वसुलभ तकनीकी सुविधाएं। तेज इंटरनेट स्पीड जैसी चीजों ने हर किसी के लिए यह बहुत आसान बना दिया है कि वह जब चाहें, नाममात्र के खर्च में अपना खुद का समाचार पोर्टल, यूट्यूब चैनल और पॉडकास्ट शुरू कर सकते हैं। इसके माध्यम से लोगों को शिक्षा, सूचना, समाचार व मनोरंजन देते समय इस तरह के उपक्रम शुरू करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि इस सबकी कुछ संवैधानिक, सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक सीमाएं भी हो सकती हैं। गैरजिम्मेदारना रवैये की शुरुआत यहीं से होने लगती है और फिर अपने दायित्वों की उपेक्षा एक आदत बन जाती है। दूसरी वजह है, डिजिटल साक्षरता पर ध्यान न दिया जाना। डिजिटल मीडिया के अप्रशिक्षित कंटेंट प्रोवाइडर और इसके जरिये जानकारियों को दूसरों तक पहुंचाने वाले आमजन, दोनों को ही इसकी बहुत जरुरत है।
बड़ी कंपनियां भी पीछे नहीं
ऐसा नहीं कि सारा दोष अपरिपक्व डिजिटल मीडिया या इंडीजीनियस कंटेंट प्रोवाइडर्स का ही है। जवाबदेही से बचने के मामले में बड़ी कंपनियां भी किसी से पीछे नहीं है। फेसबुक और ट्विटर जैसे कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल बरसों से ‘फेक न्यूज’ और ‘हेट कंटेंट’ के लिए किया जाता रहा है। लेकिन, उनकी तरफ से इन्हें रोकने के लिए पुख्ता उपाय अभी तक नहीं किये जा सके हैं। चूंकि, अभी तक हमारे यहां सब कुछ स्व-नियमन (सेल्फ रेगुलेशन) के भरोसे चल रहा है, इसलिए जवाबदेही को लेकर, ये किसी भी प्रकार की कानूनी कार्रवाई से आसानी से बच जाती हैं। यह निश्चिंतता, उन्हें ‘जो है, जैसा है’ के हिसाब से चलते रहने के लिए प्रोत्साहित करती है।
यूजर्स कुछ भी पोस्ट करें, समाज पर, देश की अखंडता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर उसका कुछ भी असर पड़े, इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। उनका एक ही मंत्र है, जितना बड़ा यूजर बेस, उतना ही बड़ा कारोबार। ट्विटर के 56 करोड़, फेसबुक के एक अरब, इंस्टाग्राम के डेढ़ अरब, ये सब मिलकर दुनिया की करीब चालीस प्रतिशत आबादी के बराबर हो जाते हैं। इन्हें अपने साथ बनाये रखने के लिए हर प्रकार के समझौते करने के लिए तैयार ये बिग टेक कंपनियां बाकी के साठ फीसदी लोगों के हितों के बारे में शायद ही कभी सोचती होंगी।
बहुभाषी, विविधतापूर्ण भारत में चुनौती ज्यादा
भारत की समस्या यह नहीं है कि वह डिजिटल मीडिया या दूसरी डिजिटल विधाओं-सेवाओं की उपलब्धता और उपयोग के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा यूजर बेस रखने वाला देश बनने जा रहा है। बल्कि समस्या यह भी है कि इसकी भाषाई, सांस्कृतिक विविधता के बीच, कोई भी चीज या बात, एक जगह के लोगों के लिए सही हो सकती है, तो वही चीज दूसरी जगह के लोगों पर, उनके समाज पर हानिकारक असर पैदा करने वाली हो सकती है। भौगौलिक सीमाओं से परे रहने वाला और खुद को सभी बंदिशों से ऊपर मानने वाला डिजिटल मीडिया, आवश्यक नियमन के अभाव में स्वतंत्र से ज्यादा उच्छृंखल नजर आता है। देश की बहुसंख्य जनता की मजबूरी यह है कि वह डिजिटल मीडिया पर बहुत ज्यादा भरोसा न करने के बावजूद, लगातार उसी के संपर्क में बनी रहने की वजह से जो बार-बार, लगातार दिखाया जाता है, उसे ही सच मानने लग जाती है।
वर्ष 2016 में ‘स्टेनफोर्ड हिस्ट्री एजुकेशन ग्रुप’ की एक रिसर्च के दौरान यह चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए कि विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म यूज करने वाले 80 प्रतिशत छात्र, विज्ञापन और खबरों के बीच फर्क ही नहीं कर पाते। अगर एक विकसित होता व्यक्तित्व चारों तरफ ऐसी सूचनाओं से घिरा हो, जिनमें कौन सी सच है, कौन सी झूठ, यही पता न चल रहा हो तो कल्पना की जा सकती है कि उसे किस तरह की मुश्किल से जूझना पड़ रहा होगा। युवा पीढ़ी को इस तरह की स्थिति से बचाने के लिए कुछ उपाय करना आवश्यक है।
सरकार की गाइडलाइंस
डिजिटल मीडिया के खिलाफ लगातार बढ़ती शिकायतों के मद्देनजर, डिजिटल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और इन पर मौजूद डिजिटल कंटेट का वैधानिक नियमन करने के लिये एक व्यवस्था बनाए जाने की मांग उठ रही थी। इस मांग को गंभीरता से लेते हुए, पिछले साल सरकार ने ‘सूचना तकनीक (अंतरमध्यवर्ती दिशानिर्देश एवं डिजिटल मीडिया कोड) कानून 2021’ लाकर, इसके अंतर्गत सोशल मीडिया, ओटीटी व डिजिटल समाचार कंपनियों के लिए कुछ दिशानिर्देश जारी किये थे। इनके अनुसार आठ तरह के नियमन तय किये गये थे। इनमें ये कंपनियां पोस्ट के मूल स्रोत को बताना, देश की संप्रभुता, सुरक्षा, जनहित, विदेश नीति संबंध, यौन हिंसा जैसे मामलों में सूचना के मूल स्रोत की जानकारी देना, भारत में रहने वाले मुख्य शिकायत निपटान अधिकारी की नियुक्ति, सरकारी एजेंसियों की निरंतर पहुंच में रहने वाला मुख्य संपर्क अधिकारी नियुक्त करना, हर महीने आने वाली शिकायतों और उनके संबंध में उठाये गये कदमों के बारे में रिपोर्ट जारी करना, अपनी वेबसाइट और मोबाइल ऐप पर भारत में मौजूद उनका एक संपर्क पता बताना, उपभोक्ताओं का सत्यापन और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा किसी उपभोक्ता की पोस्ट हटाये जाने पर उस कंटेंट और उसे हटाने की वजह की जानकारी देना, जैसी चीजों के लिए बाध्य थीं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण चीज यह थी कि कानून कहीं भी कंपनियों या इन पर उपलब्ध कंटेंट की सेंसरशिप की बात नहीं करता था और इसमें ऐसी व्यवस्था की गई थी कि कंपनियां टीवी मीडिया की तरह ‘आत्म–अनुशासन’ या ‘स्व-नियमन’ के सिद्धांत पर काम करें। लेकिन, अपने व्यावसायिक हितों को सर्वोपरि रखने वाले डिजिटल मीडिया के आचरण को देखकर कहीं ऐसा नहीं लगता कि उसने ‘आत्म–अनुशासन’ या ‘स्व-नियमन’ सीखा होगा।
हम कह सकते हैं कि सब कुछ डिजिटल मीडिया के ऊपर छोड़ देने से समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता। कुछ नई तरह की और अधिक सार्थक नियामक और निवारक व्यवस्थाएं होना आवश्यक हैं। तभी उनमें प्रिंट मीडिया जैसी जवाबदेही और सामाजिक दायित्वों के प्रति गंभीरता की भावना उत्पन्न की जा सकेगी।