राजनांदगांव (अमर छत्तीसगढ़) आगम ज्ञाता, युवाहृदय सम्राट, प.पू. गणाधीश पंन्यास प्रवर श्री विनयकुशल मुनि गणिवर्य जी म.सा. के सुशिष्य
ओजस्वी वक्ता, 81 वें उपवास के महान तपस्वी
प.पु.श्री विरागमुनि जी म.सा. ने कहा इस संसार के प्रत्येक धर्म के अनुयायी यह तो अवश्य मानते है कि जब तक शरीर है तब तक हर एक प्राणी को आहार की आवश्यकता होती ही है या अन्य शब्दों में कहे तो आहार की तृष्णा होती ही है,ज्यों ज्यों इंद्रियों की संख्या बढ़ती है यह तृष्णा विशिष्ट होती चली जाती है ।
मुनि श्री ने कहा सूक्ष्म प्राणियों का काम हवा से, किसी का हवा और पानी से चल जाता है जैसे जैसे इंद्रियाँ बढ़ती हैं, यथा कुत्ता, बैल आदि की अवस्था आने तक भोजन में विविधता की इच्छा होती है और मनुष्यपने में यह इच्छा उत्कृष्टम स्थिति में पहुँचने लगती है विभिन्न पकवान, तलन, मिष्ठान्न, नमकीन आदि की प्रबलतम तृष्णा होती है, विभिन्न प्रकार की तृष्णाओं में इंद्रियाँ निमग्न होती है। जिसमें आहार की विशेष अभिलाषा होती है जो अपनी इंद्रियों की अभिलाषा पर विजय पा ले वह कहलाता है “जितेंद्र” एवं इंद्रिय विजय की साधना में जो निरंतर रत रहे वही कहलाता है “साधु” अति दुष्कर एवं असाध्य समान आहार संज्ञा पर विजय की साधना करते साधु अत्यंत अल्प दिखाई पड़ते हैं।
राजनांदगांव के प्रबल पुण्योदय से ऐसे महान तपस्वी हमारे नगर में विराजमान हैं। जिनकी साधना की जितनी अनुमोदना की जाये उतनी कम है। तप तभी उत्कृष्ट है जब तप के साथ न मान आये न समाधि जाये, ऐसी उत्तम आत्म अवस्था को प्राप्त महान तपस्वी म सा विराग मुनि जी की उग्र तपस्या का आज 81 वाँ दिवस है। इतनी तीव्र तपस्या के बावजूद मुनिराज अपने दैनिक कर्तव्य पूर्व की भाँति ही निभा रहे हैं । प्रवचन, स्वाध्याय भी अटूट रूप से चल रहे है एवं अपने गुरु की सेवा में उन्होंने किंचित मात्र भी कमी आने नहीं दी है,आत्मा में,मन में इतनी लीनता एवं प्रसन्नता है मानो परम पद पा लिया हो, हमें इसमें चमत्कार नहीं देखना है अपितु पुरुषार्थ की ताक़त एवं श्रद्धा का परिणाम देखना है कि जिस प्राणी को अपने संसारी जीवन में एक उपवास करने के लिए भी सौ सौ बार विचार करना पड़ता था वह साधु बनते ही आज 81 वाँ उपवास भी सहज रूप से कर रहा है,यही सच्चे साधु की पहचान है l