रायपुर( अमर छत्तीसगढ़) 27 अगस्त। उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि ने कहा कि जिसे तीर्थंकर बनना है उसे अकेल जीना ही पड़ता है। साधना के मार्ग पर अकेले ही चलना पड़ता है। जिसमे अकेले चलने की हिम्मत होती है, वो दुनिया का नक्शा बदलने की शक्ति रखते हैं। बल तभी मिलता है जब आप अकेले जीते हैं। उन्होंने कहा कि शेर झुण्ड में नहीं चलता, वह अकेला चलता है। वैसे ही तीर्थंकर भी अकेले रहते हैं, चक्रवर्ती भी अकेले रहते हैं, कभी भी दो तीर्थंकर या दो चक्रवर्ती एक साथ नहीं होते। प्रवीण ऋषि रविवार को शैलेन्द्र नगर स्थित लालगंगा पटवा भवन में चल रही महावीर गाथा के दौरान धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। उक्ताशय की जानकारी रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने दी है। उन्होंने यह भी बताया कि आज आनंद गुरु दीक्षा भी संपन्न हुई।
महावीर गाथा को आगे बढ़ाते हुए प्रवीण ऋषि ने कहा कि विश्वभूति और विशाख नंदी ने अपने प्राण त्याग दिए। विश्वभूति ने कोई गलती नहीं की थी, लेकिन फिर भी उसने सजा भोगी। उन दोनों के अगले जन्म के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि इस जन्म में विशाख नंदी का पहले जन्म हुआ। मृत्यु का भय लेकर मारा था, इस भय के साथ मरने वाले को प्रतिवासुदेव कहते हैं। ये हर पल मृत्यु के भय में जीते हैं। पूछते रहते है, मैं कब मरूंगा, कैसे मरूंगा, किसके हाथों मरूंगा। इस युग में विशाख नंदी का नाम है अश्वग्रीव। इसे इस युग का रावण कह सकते हैं। भय का राज चल रहा है, लोगों पर अत्याचार हो रहा है, जिसने भी अश्वग्रीव की ओर नजर उठाकर देखी, उसका सर्वनाश हुआ। अश्वग्रीव एक समंत था, प्रजापति, उसने सोचा कि अश्वग्रीव के अत्याचार से कैसे मुक्ति मिले? किसी मुनि ने सलाह दी थी कि अगर आप अपनी पुत्री से विवाह करें तो उससे जन्मा बालक अश्वग्रीव के अत्याचारों से मुक्ति दिला सकता है। प्रजापति के दो बेटे हुए। एक का नाम अचल, और एक का त्रिपुष्ठ। विश्वभूति इस जन्म में त्रिपुष्ठ हैं।
उन्होंने आगे कहा कि अश्वग्रीव का दरबार लगा है। उसकी आदत है कि वह हर ज्योतिषी, मुनि, ऋषि से अपनी मृत्यु के बारे में पूछता रहता है। दरबार में एक ज्योतिष आया। आदतन उसने पूछा, मुझे मारने वाले ने जन्म लिया? ज्योतिष ने कहा, ले लिया है। अश्वग्रीव के कान खड़े हो गए। उसने पूछा कौन है, कहां है बताओ, मैं उसे ढूंढकर समाप्त कर दूंगा। ज्योतिष समझदार था, उसने सत्य बोला, लेकिन भेद को छुपाये रखा। प्रवीण ऋषि ने कहा कि कभी ऐसा भेद मत खोलो कि किसी की जान पर बन आए। सत्य बोलो, मगर ऐसा सत्य मत बोलो कि किसी के जीवन में अंधियारा हो जाए। सत्य वही जो जीवन में उजियारा लाये। ज्योतिष ने कहा कि जो तेरे दूत की पिटाई करेगा वही तेरा वध करेगा। सब दरबारी हंसाने लगे। भला कोई दूत को मारता है क्या? उसने मुस्कुराते हुए कहा कि तुहारे सबसे शक्तिशाली योद्धा चंडमेघ को जो पीटेगा, वही तुम्हारा काल बनेगा। चंडमेघ उठा, राजा को प्रणाम किया और अपने साथियों संग निकल पड़ा। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि चंडमेघ और अश्वग्रीव की तरह हम भी अपनी बुराई करने वालों को खोजते रहते हैं, खोजते रहोगे तो वैर की शुरुआत हो जाएगी।
चंडमेघ सेना लेकर निकल पड़ा। हर राज्य में उत्पात मचाने लगा, लेकिन हाथ उठाना तो दूर, किसी की हिम्मत नहीं हुई उसे कुछ बोलने की। जहां भी गया वहां उसका सत्कार हुआ। दूत अश्वग्रीव के पास पहुंचते और समाचार देते। ऐसा करते करते चंडमेघ प्रजापति की नगरी पहुंचा। दरबार में सगीत का आयोजन हुआ था, सभी आनंद ले रहे थे। इसने में चंडमेघ अपने साथियों संग सभा में घुस गया। संगीत बंद हो गया। सभी को बुरा लगा लेकिन किसी ने कुछ नहीं बोला, उलटा प्रजापति दौड़ते हुए आये और उनका स्वागत करने लगाए। सभा में अचल और त्रिपुष्ठ भी बैठे थे, उन्हें बड़ा बुरा लगा। उन्होंने कहा कि इसने सभा का अपमान किया है, इसे सजा तो दे कर रहेंगे। इसकी पिटाई करनी पड़ेगी। त्रिपुष्ठ ने अपने सेवक से कहा कि जब ये सब जाने लगें तो हमें सूचित करना। चंडमेघ ने दूत के हाथों सन्देश भेज दिया कि यहाँ भी कोई आपका दुश्मन नहीं है। कुछ दिनों बाद चंडमेघ वापस लौटने के लिए निकला। अचल और त्रिपुष्ठ को पता चला तो वे उसी रास्ते पर इंतजार करने लगे। जैसे ही काफिला गुजरा दोनों भाई काफिले पर टूट पड़े। त्रिपुष्ठ चंडमेघ पर काल बनकर टूट पड़ा। वहीँ अचल के बाण किसी सैनिक को उसके पास आने नहीं दे रहे थे। प्रजापति को जब खबर मिली कि दोनों राजकुमारों ने चंडमेघ पर हमला कर दिया है तो उसने अपना सर पकड़ लिया। उसने चंडमेघ को वापस बुलाया, उससे माफ़ी मांगी, उसकी खिदमत में लग गया। जब दोनों भाइयों ने यह पता चला तो वे वापस घर नहीं गए, जंगल में चले गए। उन्होंने सोचा कि ऐसे पिता का चेहरा देखने से अच्छा हम जंगल में रहें। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि हर जन्म में वासुदेव को जंगल में घूमना पड़ता है, अपनों से बिछड़ना और अकेले चलना पड़ता है। चाहे वो राम हो, विश्वभूति हो या फिर त्रिपुष्ठ हो। साधना के मार्ग पर अकेले ही चलना पड़ता है।