( लेखक:आनंद जैन कासलीवाल)
आषाढ़ शुक्ला गुरुपूर्णिमा, रविवार ,वी.सं.2550,
दिनांक: 21 जुलाई,2024 के पावन अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं। इस दिन 24 वे तीर्थंकर जगद्गुरु श्री महावीर स्वामी, उनके प्रथम गणधर शिष्य श्री गौतम स्वामी, श्रुतस्कन्ध यंत्र, श्रुतदेवी इनकी प्रतिमाओं का अभिषेक-पूजा कर अपना जीवन सफल करें। धर्म- गुरुओं का दर्शन-पूजन करें, उनका प्रवचन सुने ,उनको आहारदान दे और उनकी वैय्यावृति करें।
जैन धर्म में गुरु पूर्णिमा कथा
भारत धर्म तथा संस्कृति प्रधान देश है और भारत ही क्या सारे विश्व में गुरू का स्थान ईश्वर के समान और कहीं कहीं तो ईश्वर से भी प्रथम पूज्यनीय बताया गया है। हमारी संस्कृति उन्हें केवल गुरु नहीं ‘‘ गुरू देव’’ कहती है। जैन धर्म में तो ‘‘गुरू की महिमा वरनी न जाय ‘‘ गुरूनाम जपों मन वचन काय‘‘ कहकर गुरू को पंच परमेष्ठि का स्थान दिया है। देव, शास्त्र, और गुरू की त्रिवेणी में करके ही मोक्ष महल में प्रवेश की पात्रता आती है और उसके फलस्वरूप संसार के आवागमन से मुक्ति मिलती है। गुरू हमारे जीवन से अज्ञान का अन्धकार मिटाकर एक नई दृष्टि देते हैं। उन्हीं की दृष्टि —यष्टि के सहारे हम ‘‘भव—वन’’ से सुरक्षित निकल कर इहलोक और परलोक सुधारते हैं।
🚩शिष्यत्व अहंकार विसर्जन का नाम है। गुरू पतित शिष्य को तो पावन बना सकते हैं किंतु उस अभिमानी शिष्य का कल्याण नहीं कर पाते जो स्वयं को विश्व का सर्वोच्च विद्वान समझता है। बुद्धिमान का अभिमान आस्था में तर्क उत्पन्न करता है क्योंकि तर्क की जननी बुद्धि होती है। श्रद्धा के अभाव में भक्ति, भक्ति के अभाव में विनय और विनय के अभाव में गुरू—शिष्य का संबंध असम्भव है। गुरू शिष्य को ज्ञान से सम्पन्न करते हैं, ज्ञान ही अन्तत: मोक्ष सुख का कारण होता है।
🚩जैनागम में गुरू शिष्य परम्परा की मंगलकारी घटना के कारण ही कैवल्य प्राप्ति के पश्चात तीर्थंकर भगवान महावीर की वाणी उनके महान शिष्य गौतम गणधर के माध्यम से जन सामान्य को उपलब्ध हुई। आचार्य गुणभद्र स्वामी द्वारा विरचित उत्तरपुराण के ७४ वें पर्व में श्लोक क्रमांक ३४८ से ३७८ तक भगवान वर्धमान स्वामी के चरित्र के उस अंश का वर्णन किया गया है, जिसमें वैशाख शुक्ल दशमी के दिन अपराह्न काल में हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के बीच चन्द्रमा के आने पर परिणामों की विशुद्धता बढ़ाते हुए वे क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए और सयोगकेवली गुणस्थान के धारक हुए।
सौधर्म इन्द्र द्वारा विधिवत् पूजन और धनपति कुबेर द्वारा समवसरण की रचना के पश्चात् भी भगवान की दिव्य ध्वनि ६६ दिन तक नहीं खिरी। सौधर्म इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से प्रभु के मौन रहने का कारण जान लिया और योग्य गणधर की उपस्थिति के लिये प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया। इन्द्र को जब अपने अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि भगवान की वाणी उपयुक्त गणधर के अभाव में नहीं खिर रही हैं तो उसने उस समय के श्रेष्ठतम विद्वान को इस पद के लिए बुलाना उचित समझा। काफी सोच विचार के पश्चात् इन्द्र ने गौतम ऋषि को बुलाने का निर्णय लिया ।
🚩गुरूजन के लिये एक ही हीरे जैसा शिष्य पर्याप्त है कांच के टुकड़ों की भांति पात्रता शून्य ढेर सारे उद्दण्ड शिष्यों से क्या प्रयोजन है ? वर्धमान चरित्र के अनुसार वीर जिनेश्वर की दिव्यध्वनि के उत्पन्न न होने के कारण इन्द्र अपने अवधि ज्ञान से जानकर गोतम गोत्रीय सकल वेद वेदांग के ज्ञाता पारगामी महाज्ञानी विद्वान इन्द्रभूति को भगवान के समीप लाने के लिये गया। सौधर्म इन्द्र ने वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाया (उत्तरपुराण श्लोक ३५७,३५८) जो पग पग पर कांप रहा था। गौतम ऋषि की शाला में पहुंच कर इन्द्र ने कहा ‘‘ नर कोस्त्य शालायां सत्प्रयुत्तरदायक : (७६ गौतम चरित्र) इन्द्र ने गौतम ऋषि से कहा—
“मेरे गुरू इस समय धर्म कार्य में लगे हुए हैं तथा ध्यान लगाकर मोक्ष पुरुषार्थ की साधना कर रहे हैं स्व तथा पर के उपकार करने में निमग्न हैं इससे वे मुझसे वार्ता नहीं कर रहे हैं। वृद्ध ब्राह्मणवेशी सौधर्म इन्द्र ने गौतम ऋषि से कहा ‘‘ हे विप्रवर आप बहुत ज्ञानी हैं आपके सदृश कोई अन्य विद्वान यहां आसपास के क्षेत्र में नहीं हैं। मेरे गुरू श्री महावीर इस समय मौन धारण किये हुए हैं अत: मैं इस श्लोक का अर्थ जानने के लिये आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। काव्य का अर्थ जान लेने से मेरी जीविका चल जायेगी, कितने ही भव्य पुरुषों का उपकार होगा और आप इस यश के भागीदार होंगे। ‘‘ महाअभिमानी गौतम ने वृद्ध से कहा— ‘‘रे वृद्ध यदि मैं तेरे काव्य का उचित अर्थ बता दूंगा तो तू मुझे इसके बदले में क्या देगा ?’’
🚩इन्द्र ने कहा कि यदि आप मेरे श्लोक का समुचित अर्थ बता देंगे तो मैं आपका शिष्यत्व स्वीकार कर लूंगा। फिर ब्राह्मणवेशी इन्द्र ने किंचित संकोच से धीमे स्वर में कहा कि यदि आप अर्थ नहीं बता पाये तो ? ब्राह्मण की बात सुनकर गौतम के अहंकार को भारी आघात पहुंचा। अपने ज्ञान पर अतिविश्वास के कारण तीख में भरकर बोला—यदि मै अर्थ नहीं बता सका तो अपने पांच सौ शिष्यों और अपने दोनों भाइयों के साथ अपना जगत्प्रसिद्ध एवं वेद—प्रतिपादित सनातन मत को छोड़ कर तुम्हारे गुरू का शिष्य बन जाऊंगा। तू अपना काव्य तो बता। तब इन्द्र ने कहा—
त्रैकाल्यं द्रव्य षट्कं सकल गतिगणा सत्पदार्था नवैव: ।
विश्वं पंचास्ति काया: व्रत समिति चिद:
सप्त तत्वानि धर्मा:।।
सिद्धेर्माण: स्वरूपं विधिजनित फलं जीवषट्काय लेश्या।
एतान् य: श्रद्धाति जिन वचन रतो मुक्ति गांभीरू भव्य:।।
🚩इन्द्र के कहे गये उपरोक्त काव्य को सुनकर महाविद्वान गौतम आश्चर्य चकित रह गये। श्लोक का अर्थ और उसमें निहित सिद्धान्त गौतम ने अपने समस्त वेद, स्मृति पुराणों में कहीं नहीं पढ़े थे। गौतम ने विचार किया कि यदि मैं उत्तर नहीं दूंगा तो मैं पराजित हो जाऊंगा। मेरी प्रतिष्ठा घट जायेगी। इसलिये उसने बहाना बनाकर इन्द्र को टालना चाहा और कहा—अज्ञ ब्राह्मण मैं इस विषय में तुम्हारे साथ कोई विवाद नहीं करना चाहता, चलो मैं सीधे तुम्हारे गुरू से ही शास्त्रार्थ करूंगा।
इस प्रकार कह कर गौतम अपने पांच सौ शिष्यों तथा दोनों भाइयों — वायुभूति, अग्निभूति के साथ भगवान महावीर के दर्शनों को निकल पड़ा।
भगवान के समवसरण के बाहर स्थापित महामनोज्ञ मानस्तम्भ को देख कर गौतम ऋषि का समस्त अहंकार और मान तत्काल ही स्वयमेव विगलित हो गया।
गौतम ऋषि विचारने लगे कि जिस गुरू की विश्व को विस्मय में डालने वाली ऐसी विभूति है उसे भला कौन जीत सकता है। गौतम ऋषि को इस प्रकार भाव विह्वल देखकर उनके दोनों भाई वायुभूति और अग्निभूति कहने लगे कि भगवान महावीर कोई इंद्रजालिक है और उन्होंने अपने दर्शन मात्र से हमारे बड़े भ्राता गौतम ऋषि को सम्मोहित कर दिया है। तत्पश्चात् गौतम ऋषि ने अपने भाईयों तथा सभी शिष्यों को समझा कर वे उनके साथ समवसरण के भीतर गये। भगवान महावीर के दर्शन करके गौतम का मन वैराग्य पूर्ण भावों से भर गया।इसके पश्चात् गौतम ऋषि ने भगवान वीरनाथ के समक्ष उन्हें अपना गुरू स्वीकार करते हुए अपने दोनों भाइयों और पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
🚩उत्तरपुराण में गणधर परमेष्ठी गौतम ने स्वयं कहा है— “तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने मेरी पूजा की ओर मैंने पांच सौ ब्राह्मणपुत्रों के साथ श्रीवर्धमान स्वामी को नमस्कार कर संयम धारण कर लिया। परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियां प्राप्त हो गई। तदनन्तर वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्ण काल में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। इसी तरह उसी दिन अपराह्ण काल में अनुक्रम से पूर्वों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। इस प्रकार जिसे समस्त अंगों तथा पूर्वों का ज्ञान हुआ है और जो चार ज्ञान से सम्पन्न है ऐसे मैंने रात्रि के पूर्व भाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की ग्रन्थ—रचना की। उसी समय से मैं ग्रन्थकर्ता हुआ। इस तरह श्रुतज्ञान रूपी ऋद्धि से पूर्ण हुआ मैं भगवान महावीर स्वामी का प्रथम गणधर हो गया।‘‘
🚩वह मंगलकारी दिन आषाढ़ शुल्का पूर्णिमा का था जिसे अपने महाकल्याणकारी प्रभावी घटनाओं के कारण ‘‘ गुरू पूर्णिमा’’ के नाम से जगत में शाश्वत ख्याति प्राप्त हुई। इसी गुरु पूर्णिमा का प्रभाव था कि महान गुरू भगवान महावीर स्वामी को महान शिष्य गौतम की प्राप्ति हुई। अगले दिन अर्थात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को प्रभात काल तथा अभिजित नक्षत्र के उदयकाल में प्रथमबार भगवान की गुरू गम्भीर वाणी खिरी। अपने दोनों भाइयों के साथ इस प्रकार गौतम भगवान महावीर के प्रथम गणधर पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनके दोनों भाइयों तथा अन्य सुधर्म, मौर्य, मौन्द्र्य, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन तथा प्रभास सहित ग्यारह गणधर हुए।
🚩श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को भगवान की जगत कल्याणी गुरू गम्भीर निरक्षरी वाणी खिरी अत: वह दिन विश्व में वीरशासन जयन्ती के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार गौतम गणधर तथा ‘‘गुरूपूर्णिमा’’ के प्रभाव से महावीर भगवानरूपी हिमाद्रि से जिनवाणीरूप गंगा का प्रादुर्भाव हुआ— वीर हिमाचल तैं निकसी गुरू गौतम के मुख कुण्ड ढरी है।
🚩इस प्रकार गुरू पूर्णिमा का पर्व प्रारम्भ हुआ जिसमें शिष्यगण अपने गुरू की पूजा अर्चना पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ करते हैं। जिस व्यक्ति को अपने जीवन में गुरू मिल जाएं उससे सौभाग्यशाली शिष्य कोई और नहीं होता है।