अम्बाजी(अमर छत्तीसगढ), 30 जुलाई। मानव जीवन को चार रूप बालु की रेत, पत्थर,वृक्ष व जवाहरात की उपमा दी गई है। हम इनमें से किस तरह के रूप का जीवन जी रहे है इस पर चिंतन मनन करना होगा। बालु की रेत का रूप मनुष्य का सबसे निकृष्ट स्तर है। ऐसा जीव अधर्मी होता है ओर दूसरों को कष्टदायी होता है। ऐसा जीवन जीने वाले को सुख नहीं मिल सकता।
इसी तरह पत्थर समान जीवन जीने वाला जैसी संगत मिलती वैसा बन जाता है। पत्थर मूर्तिकार के हाथ में आ जाए तो मूर्ति बन पूजनीय हो जाता ओर पत्थरबाज के हाथ में आ जाए तो दूसरों को नुकसान पहुंचाता है।
ये विचार पूज्य दादा गुरूदेव मरूधर केसरी मिश्रीमलजी म.सा., लोकमान्य संत, शेरे राजस्थान, वरिष्ठ प्रवर्तक पूज्य गुरूदेव श्रीरूपचंदजी म.सा. के शिष्य, मरूधरा भूषण, शासन गौरव, प्रवर्तक पूज्य गुरूदेव श्री सुकन मुनिजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती युवा तपस्वी श्री मुकेश मुनिजी म.सा ने मंगलवार को श्री अरिहन्त जैन श्रावक संघ अम्बाजी के तत्वावधान में अंबिका जैन भवन आयोजित चातुर्मासिक प्रवचन में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि वृक्ष के समान जीवन उपयोगी होता है। ऐसा जीवन जीने वाला परोपकारी व दूसरों का भला चाहने वाला होता है।
जवाहरात जैसा जीवन जिनका होता है वह हमेशा दुनिया में चमकते रहते है ओर दुनिया उनका अनुसरण करने के लिए आतुर रहती है। ऐसे लोगों का जीवन आदर्श व अनुकरणीय होता है। धर्मसभा में सेवारत्न श्री हरीश मुनिजी म.सा. ने कहा कि मृत्यु जीवन का ऐसा सच है जिसे कोई झूठला नहीं सकता है।
जिस प्राणी ने जन्म लिया है उसकी मृत्यु अवश्यभांवी है। मृत्यु कब होगी यह कोई नहीं जानता इसलिए मौत आने से पहले धर्म की साधना करते हुए ऐसा जीवन जीए कि दुनिया से विदा होने के बाद भी लोग याद करे। जीवन रूपी दीये की बाती बुझे उससे पहले सद्गुणों की ऐसी रोशनी करे कि हम आत्मकल्याण का लक्ष्य प्राप्त कर सके।
धर्मसभा में मधुर व्याख्यानी श्री हितेश मुनिजी म.सा. ने कहा कि मनुष्य की आत्मा ही परमात्मा है। हम भगवान को मानते है लेकिन भगवान की नहीं मानते है। बड़ो को मानते है पर उनकी आज्ञा नहीं मानते ओर सेवा नहीं करते है। हम स्वर्ग की तलाश में भटकते है लेकिन जब तक कर्म अच्छे नहीं होंगे वह नहीं मिल सकता। हमारा वर्तमान नरक जैसा है तो भविष्य में स्वर्ग की कामना नहीं कर सकते।
भविष्य स्वर्ग जैसा बनाना चाहते है तो उसके लिए वर्तमान को भी स्वर्ग जैसा बनाना होगा। उन्होंने सुखविपाक सूत्र के प्रथम अध्ययन का वाचन पूर्ण करते हुए बताया कि किस तरह सुबाहुकुमार माता-पिता की आज्ञा से संयम ग्रहण करते है ओर उसके बाद कई बार मनुष्य भव व देव भव को प्राप्त होते हुए अंत में उनकी आत्मा सिद्ध बुद्ध मुक्त हो जाती है।
प्रार्थनार्थी सचिनमुनिजी म.सा. ने कहा कि जीवन को सफल बनाने के लिए उच्च विचार के साथ उत्तम आचरण होना निहायत जरूरी है। पवित्र आचरण के बिना आत्मकल्याण नहीं हो सकता। किसी भी उत्तम ध्येय की प्राप्ति के लिए आचार-विचारों में पवित्रता होना आवश्यक होता है। निर्मल विचार ओर पवित्र आचरण ही मनुष्य का धर्म है।
इनके बिना मनुष्य धर्मात्मा नहीं हो सकता। धर्म के पथ पर चलने वाले का आचरण प्रेरणादायी होता है। धर्मसभा में युवारत्न श्री नानेशमुनिजी म.सा. का भी सानिध्य प्राप्त हुआ। अतिथियों का स्वागत श्रीसंघ के द्वारा किया गया। धर्मसभा का संचालन गौतमचंद बाफना ने किया। चातुर्मासिक नियमित प्रवचन सुबह 9 से 10 बजे तक हो रहे है।
सामूहिक तेला तप आराधना 11 अगस्त से
चातुर्मास के विशेष आकर्षण के रूप में 15 अगस्त को द्वय गुरूदेव श्रमण सूर्य मरूधर केसरी प्रवर्तक पूज्य श्री मिश्रीमलजी म.सा. की 134वीं जन्मजयंति एवं लोकमान्य संत शेरे राजस्थान वरिष्ठ प्रवर्तक श्री रूपचंदजी म.सा. ‘रजत’ की 97वीं जन्म जयंति समारोह मनाया जाएगा। इससे पूर्व इसके उपलक्ष्य में 11 से 13 अगस्त तक सामूहिक तेला तप का आयोजन भी होगा। चातुर्मास अवधि में प्रतिदिन दोपहर 2 से 4 बजे तक का समय धर्मचर्चा के लिए तय है। प्रति रविवार को दोपहर 2.30 से 4 बजे तक धार्मिक प्रतियोगिता हो रही है।
प्रस्तुतिः निलेश कांठेड़
अरिहन्त मीडिया एंड कम्युनिकेशन, भीलवाड़ा, मो.9829537627