“बात मन की- निलेश कांठेड़”….. दुनिया को पढ़ा रहे एकता का पाठ ओर घर में हो रहे विखण्डित तो फिर कौन मानेगा हमारी बात…. अपने ही पंथ-परम्पराओं को श्रेष्ठ मानने की सोच जैन एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा

“बात मन की- निलेश कांठेड़”….. दुनिया को पढ़ा रहे एकता का पाठ ओर घर में हो रहे विखण्डित तो फिर कौन मानेगा हमारी बात…. अपने ही पंथ-परम्पराओं को श्रेष्ठ मानने की सोच जैन एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा

वर्तमान समय सोशल मीडिया का है। जैन समाज के सैकड़ो ग्रुप से जुड़ा हुआ हूं। इन ग्रुपों में पूरे देश के हजारों स्वधर्मी बंधु भी जुड़े हुए है। इन ग्रुपों में रोज जो संदेश आते है उनमें अधिकतर में जैन एकता की पॉजिटिव बाते कम अपनी पंथ-परम्परा को श्रेष्ठ साबित करने या दूसरों की पंथ-परम्परा की खामियां निकालने की बहस ज्यादा होती है।

बहस इस बात की नहीं होती दिखती है कि आजादी के बाद पहली बार लोकसभा में एक भी जैन सांसद नहीं होने के लिए कौन जिम्मेदार है या वोट बैंक के इस युग में जैन धर्मावलम्बियों की संख्या कम क्यों होती जा रही है। जिस जैन कुल में जन्म लेने को देवता भी तरसते है उसे ठुकरा हमारी बेटियां विधर्मी परिवारों में क्यों जा रही है।

सर्वाधिक टेक्सप्रदाता होने का दावा करने वाले समाज में कुछ लोग बेहतर उपचार व शिक्षा के लिए भी लाचार क्यों दिखते है। बहस इस बात की भी नहीं होती है कि हमारे समाज के जिन परिवारों को हम एक माह का राशन उपलब्ध करा फोटो खिचवाने में अग्रणी रहते है उनको हर माह राशन देने की बजाय जीवन स्तर कैसे उपर उठाया जाए।

बहस इस बात की भी कम ही नजर आती है कि हम अपने पंथ,गच्छ ओर सम्प्रदाय के प्रति आस्थावान रहते हुए किस तरह जैन एकता का बिगुल बजा सकते है। सोशल मीडिया पर हमारी बहस इस बात की चलती रहती है कि कौनसी पंथ-परम्परा में संत-साध्वी अधिक या कम शिथिलाचारी है,कौनसे सम्प्रदाय या गच्छ के संत अधिक या कम क्रियावान है, किस पंथ या संघ में दीक्षा कम ओर किसमें ज्यादा हो रही है, संत-साध्वी चातुर्मास करे तो पीछे बैनर में किसके नाम का दरबार लिखना चाहिए, किस महाराज की जय बोलनी चाहिए और किसकी नहीं बोलनी है, संघों का पदाधिकारी कौन बनेगा और कौन नहीं बनेगा ओर इन सब बहस से भी आगे विवाह योग्य बेटो के लिए बहु पाने को तरसते समाज में एक नई बहस इन दिनों छिड़ी हुई है कि हमे अपनी बेटी की शादी कौनसी पंथ-परम्परा करनी चाहिए या दूसरी परम्परा में जिन बेटियों की शादी कर दी उनको कौनसी परम्परा की पालना करनी चाहिए।

इन सारी बहसों का कोई सार नहीं निकलने वाला बल्कि मनमुटाव गहरा होने वाला है यह जानते हुए भी कोई अपने कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं दिखते ओर अपने पंथ-परम्परा की श्रेष्ठता ओर दूसरों की कमियां दिखाने के अति उत्साह में कई बार तो हालात मतभेद के मनभेद में बदल जाने के हो रहे है। ये देख बहुत दुःख होता है कि जिन पर हालात सुधारने या नियंत्रित रख जैन एकता का मिशन आगे बढ़ाने का दायित्व सौंपा हुआ है कई बार वह भी अपने पंथ-परम्परा वालों दबाव में आकर भावनाओं में बहते हुए एकता की राह में कांटे बिछाने वाली बयानबाजी करते नजर आते है।

चातुर्मास काल चल रहा है। सभी पंथ-परम्पराओं के पूज्य संत-साध्वियों के प्रवचनों में अक्सर सुनने को मिलता है संगठित रहने वाले को कोई जुदा नहीं कर सकता ओर अलग-अलग रहने पर कोई भी तोड़ कर फेंक सकता है। इसके बावजूद दुनिया को सत्य, अहिंसा व अनेकान्तवाद का संदेश देने वाले जैन धर्म में हकीकत के धरातल पर बिखराव की स्थिति खतरनाक मोड़ पर नजर आती है। इस हालात के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार धर्म को दो नम्बर पर रख एक नम्बर पर पंथ/परम्परा को रखने वाली वह सोच है जिसमें यह माना जाता है कि हम कभी गलत हो ही नहीं सकते ओर सामने वाला हमेशा गलत ही होगा।

इस सोच के कारण ही हम अपने महान पर्वो को एकजुट होकर मनाने के लिए भी एक राय नहीं बना पाते है। हमारे समाज के तथाकथित लीडर जैन एकता की जरूरत ओर लाभों पर लंबा भाषण दे सकते है लेकिन जब दुनिया के समक्ष एकता प्रदर्शित करने का मौका आता है तो चुपके से या खुले रूप से अपने तर्को की पौथी दिखा पल्ला झाड़ जाते है ओर ये ठहराने में कतई कमी नहीं रखते है कि सही तो मैं हूं बाकी सब गलत है।

आगम का ज्ञान हो या तीर्थंकरों की वाणी इसको जानने व समझने का लाइसेंस कुछ चुनिंदा लोगों के पास नहीं होकर जो भी इनका स्वाध्याय करता है उसे हो सकता है। इसके बावजूद उस समय बड़ा अफसोस होता है जब झुकने को विनम्रता व महानता की निशानी बताने वाले कथित ज्ञानी मित्र अपने-अपने तर्को को सही ठहराने ओर दूसरों को गलत साबित करने पर अड़ जाते है। कहते है अच्छी बात कहीं से भी सीखने को मिले तो तुरंत अंगीकार कर लेना चाहिए पर जब मौका आता है तब अधिकतर लोग अच्छी बात स्वीकार करने से भी इसलिए परहेज कर लेते है क्योंकि वह उनके गुरू या संघ ने नहीं कहीं है।

कई बार अच्छी अनुकरणीय पहल भी हमारी गुटबाजी और पंथीय-गच्छीय खींचतान की भेंट चढ़ जाती है। इस विखण्डन के दूरगामी दुष्परिणाम और व्यवहारिक धरातल पर होने वाली जग हंसाई के बारे में जानकर भी हम अनजान बने होने का दिखावा कर रहे है।

पंथ-परम्परा के नाम पर गुटों में विभाजन जैन समाज की सबसे बड़ी कमजोरी बन गया है। यदि हम उन मुद्दों पर जहां एकता जरूरी है वहां एक नहीं हो पाए तो भले कितने ही भाषण दे और जलसे निकाल ले आने वाले दिनों में भी हमारी परेशानियां कम नहीं होने वाली है। ये कहकर अपनी गलतियांें पर पर्दा नहीं डाल सकते है कि अन्य समाजों व धर्मो में भी ऐसे ही हालात है।

किसी का घर टूट रहा हो तो क्या उसे देख हम अपना घर टूटने से बचाने का प्रयास बंद कर देंगे। अब भी समय हैै इस शिक्षित, समर्थ व सुसभ्य समाज का हर व्यक्ति जागृत होकर जैन एकता प्रदर्शित करने के लिए जागरूक बने ओर जो भी एकता की राह में बाधक बनते है उन्हें जैन धर्म की रक्षा के लिए कदम पीछे खींचने को मजबूर करें। इस लेखन का मंतव्य जैन एकता की भावना मन में जागृत हो इसके लिए छोटा सा प्रयास मात्र करना है फिर भी जाने अनजाने किसी की भावनाएं आहत हुई हो तो मिच्छामी दुक्कड़म। जय महावीर

स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक
पूर्व चीफ रिपोर्टर, राजस्थान पत्रिका, भीलवाड़ा
मो.9829537627

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