वेसु, सूरत गुजरात (अमर छत्तीसगढ) 11 सितंबर। :
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को महावीर समवसरण में उपस्थित जनता को आयारो आगम के माध्यम से पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी को जब यह जानकारी हो जाती है कि काम-भोगों से जीवन में रोग की उत्पत्ति होती है। आदमी अत्राण और अशरण भी है, दुःख, सुख भी अपना-अपना होता है। इन बातों का ज्ञान होने के बाद भी कुछ लोग धर्म की ओर आगे बढ़ जाते हैं और कुछ लोग जानकर भी भोगों के विषय में ही आसक्त रहते हैं।
तीन शब्द बताए गए हैं- भोग, योग और रोग। योग साधना में धर्म और अध्यात्म की साधना होती है, जिससे आत्मा के रोग भी दूर हो जाते हैं। कई बार शारीरिक कष्ट भी योग की साधना से दूर हो सकते हैं। जीवन को चलाने में पदार्थों की अपेक्षा भी होती है। आदमी को यह विचार करना चाहिए कि आदमी को अपने जीवन में किसी पदार्थ की आवश्यकता कितनी है और अपेक्षा और लालसा कितनी है। भूख लगे तो भोजन, प्यास लगे तो पानी, शरीर के लिए कपड़ा, आश्रय के लिए मकान की आवश्यकता होती है। पढ़ने-लिखने के लिए संबंधित पदार्थ चाहिए।
सोने के लिए कुर्सी और पलंग की आवश्यकता होती है। ये सारी चीजें तो आवश्यक हैं, किन्तु इन संदर्भों में इच्छा कितनी है, इसे ध्यान में रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी साधारण कपड़े से भी शरीर को ढंक सकता है, कोई महंगे कपड़े पहनने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जीवन के लिए किसी चीज की आवश्यकता तो हो सकती है और उसे पूरा करने का प्रयास भी किया जा सकता है, किन्तु लालसा के वशीभूत होकर उसीमें रम जाना अच्छा नहीं होता।
आदमी को विचार करना चाहिए कि जीवन में सबकुछ हो सकता है, समय बीत रहा है तो वह अपनी आत्मा के कल्याण के लिए तथा आगे के जीवन को अच्छा बनाए रखने के लिए क्या करता है। जैसे-जैसे समय बढ़ता है, वैसे-वैसे जीवन में धर्म की साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। जवानी के समय में भी अन्य कार्यों के साथ जितना संभव हो सके, धर्म करने का प्रयास करना चाहिए।
जीवन में यथासंभव ईमानदारी, नैतिकता, अहिंसा रखने से भी धर्म की बात हो सकती है। जीवन में ईमानदारी, नैतिकता, अहिंसा रूपी धर्म के लिए अलग कोई समय लगाने की भी अपेक्षा नहीं होती है। उसके बाद जितना संभव हो सके धर्म-ध्यान के लिए भी समय निकालने का प्रयास करना चाहिए।
गृहस्थ अपने जीवन में जितना त्याग कर ले, वह उसके लिए कल्याणकारी हो सकता है। जितना संभव हो सके आदमी को अपने जीवन में त्याग और संयम की चेतना का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। पहले आदमी भोग भोगता है और फिर भोग आदमी को भोग लेता है। जैसे पहले आदमी शराब पीता है और बाद में शराब आदमी को पी जाती है। इसलिए जितना संभव हो, भोग नहीं योग की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। आदमी अपने जीवन में केवल भोगी और रोगी नहीं, योगी भी बनने का प्रयास करना चाहिए।
आसन, प्राणायाम ही नहीं, मोक्ष के मार्ग से जोड़ने वाला सारी पवृत्ति अपने आप में योग होती है। इसलिए आदमी को यथासंभव मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिएमंगल प्रवचन के उपरान्त होसपेट के श्री अशोकजी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने होसपेटवासियों को पावन आशीर्वाद प्रदान किया। श्रीमती शायर बोथरा ने अपनी भावाभिव्यक्ति देते हुए पूज्यप्रवर के समक्ष ‘चैतन्य केन्द्र एवं अन्य योग चक्रों का तुलनात्मक अध्ययन’ शोध ग्रन्थ को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया।
इस संदर्भ में आचार्यश्री ने पावन आशीर्वाद प्रदान किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन विश्व भारती की ओर से संघ सेवा पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया। नेमचंद जेसराज सेखानी चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा श्रीमती पानादेवी सेखानी संघ सेवा पुरस्कार-वर्ष 2024 श्री बुधमल दुगड़ (कोलकाता) को प्रदान किया गया।
इस संदर्भ में श्रीमती सरिता सेखानी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। श्री दुगड़ के सम्मान पत्र का वाचन जैन विश्व भारती के मंत्री श्री सलिल लोढ़ा ने किया। श्रीमती मधु दुगड़ ने ने भी इस संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति दी। विकास परिषद के सदस्य श्री बनेचंद मालू ने भी अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में पुरस्कारप्राप्तकर्ता व पुरस्कार प्रदाता परिवार व संस्था को पावन आशीर्वाद प्रदान किया। सुरेन्द्र दुगड़ ने अपने कृतज्ञभावों को प्रस्तुति दी।