बिलासपुर(अमर छत्तीसगढ) 14 सितंबर। दिगंबर जैन मंदिरों में चारों ओर धूप की भीनी-भीनी और सुगंधित खुशबू बिखरी। सभी जैन श्रावकों ने सुगंध दशमी का पर्व मनाया। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की दशमी को यह पर्व मनाया जाता है, इसे सुगंध दशमी अथवा धूपदशमी कहा जाता है। जैन मान्यताओं के अनुसार दशलक्षण पर्व के अंतर्गत आने वाली सुगंध दशमी का काफी महत्व है।
इस व्रत को विधिपूर्वक करने से मनुष्य के अशुभ कर्मों का क्षय होकर पुण्यबंध का निर्माण होता है तथा उन्हें स्वर्ग, मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दौरान जैन श्रावक शहरों/गांवों के सभी जैन मंदिरों में जाकर भगवान को धूप अर्पण करते हैं। जिसे धूप खेवन भी कहा जाता है, जिससे सारा वायुमंडल सुगंधमय हो जाता है और बाहरी वातावरण स्वच्छ और खुशनुमा हो जाता है।
इस अवसर पर अपने द्वारा हुए बुरे कर्मों के क्षय की भावना मन में लेकर मंदिरों में भगवान के समक्ष धूप चढ़ाई जाती है और भावना भायी जाती है कि हे भगवान! सुगंधदशमी के दिन सभी तीर्थंकरों का पूजन कर मेरा मन हर्षित-प्रफुल्लित हो गया है तथा धूप खेवन के इस पवित्र वातावरण से भगवान खुश होकर मोक्ष पद का रा्स्ता हमें दिखलाएं। इन्ही रीतियों का पालन करते हुए बिलासपुर के तीनों जैन मंदिरों में धुप सेई गयी और सभी श्रावकों ने बिलासपुर के तीनों जैन मंदिरों के दर्शन किये।
दशलक्षण पर्व के उत्तम संयम धर्म पर प्रवचन करते हुए सांगानेर से पधारे पंडित जयदीप जैनजी शास्त्री ने कहा कि संयम अक्षरों सम् और यम से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है सम्यक रूप से यम अर्थात् नियंत्रण करना संयम है। हम कह सकते हैं जैसे बिना ब्रेक के गाड़ी बेकार है ठीक उसी प्रकार बिना संयम के अमूल्य आभूषण के बिना मनुष्य भव बेकार है, इसीलिए जैनागम में संयम का पालन मुनिराज और श्रावक दोनों के लिये वर्णित है।
उन्होंने कहा कि संयम वह पावन धर्म है, जिसके बिना जीवन रूपी मार्ग पर चलना संभव नहीं है। संयम वह निधि है, जो मनुष्य को पूज्य बना देती है। संयम ही मानव जीवन का सार है। जो अपनी इंद्रियों पर संयम रखना सीख जाता है, वह अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेता है, लेकिन मनुष्य का इच्छाओं पर भी नियंत्रण नहीं है। प्रभु जितना देते हैं, मनुष्य की भूख बढ़ती जाती है और फिर मनुष्य गलत रास्ते को अपना लेता है। संयम को हम बंधन कहते है, लेकिन यह बंधन दुख नहीं, बल्कि सुख प्रदान करने वाला है।
उन्होंने समझाया कि अपनी पांच इन्द्रियों के विषयों का सेवन हम सुख की कामना से करते हैं, पर विचार करें कि क्या हमें उनके सेवन से सुख मिलता है ? नहीं !! भ्रम से सुख का आभाष मात्र होता है, वो भी कुछ ही क्षणों के लिये। वास्तव में विषयों का सुख एक ऐसे फल के समान है, जो जीभ पर रखने पर तो मीठा लगता है, पर बाद में घोर दुख, महादाह, और संताप देता है, ठीक उसी प्रकार ये पंचेन्द्रिय के विषय जीव को बहुत आकर्षित करते है, लुभावने और मनमोहक लगते हैं, पर इनके फल में जीव अनंतकाल तक नरकों के घोर दुखों को सहन करता है।
उन्होंने समझते हुए कहा कि चारों गतियों में से एक मात्र मनुष्य गति के जीव ही संयम पाल सकते हैं। हम अपने कुछ स्वार्थों को पूरा करने के लिये न जाने कितने जीवों की हिंसा प्रतिदिन करते हैं, जैसे अभक्ष्य भक्षण, रात्रि भोजन, सौन्दर्य के सामान आदि के लिये हम अनंत जीवों की हिंसा करते हैं। यदि हम चाहे तो इन इच्छाओं पर नियंत्रण करके आंशिक रूप से ही सही जीव दया का पालन कर संयम की रक्षा कर सकते हैं, जो एक सच्चे श्रावक को करना ही चाहिये।
वर्तमान स्थिति को देखते हुए उन्होंने कहा कि इस स्थिति में यदि विचार करें तो हम पाते हैं कि हमें तो वर्तमान में सब सुसंयोग प्राप्त है, और हम थोड़ी सी विषय – लोलुपता वश ये अमूल्य मनुष्य भव यूँ ही व्यर्थ गवाँ रहे हैं। यदि हम चाहें तो अपनी कषायों को नियंत्रित करके, भोगों की लालसा पर नियंत्रण करके, रसों का त्याग करके, परिग्रह की अतिवांक्षा को नियंत्रित करके, त्रस- स्थावर जीवों की हिंसा को नियंत्रित करके वर्तमान में भी संयम पाल सकते हैं। संयम से ही भव-भव के दुखों से छुटकारा मिल सकता है। वास्तव में संयम ही मोक्ष का मार्ग है।
वर्तमान में भी हम जितना – जितना अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करते है, उतना ही हम सुखी रहते हैं। संयम के बिना ये मनुष्य भव शून्य के बराबर है। संयम के बिना देह का धारण करना, बुद्धि का पा लेना, यहाँ तक कि ज्ञान की आराधना करना दीक्षा धारण करना भी व्यर्थ है। ज्ञानीजन तो ऐसी भावना भाते हैं कि संयम के बिना हमारे मनुष्य भव की एक घड़ी भी व्यर्थ न हो। संयम इस भव में ही नहीं परभव में भी एक मात्र शरण है। दुर्गति रूपी सरोवर को सोखने के लिये संयम सूर्य के समान हैं। संसार परिभ्रमण का नाश संयम के बिना असंभव है। हम सबका जीवन भी संयम से सुशोभित हो ऐसी मंगल भावना है।
रात्रिकालीन कार्यक्रमों में समर्पण समूह द्वारा धार्मिक प्रतियोगिता आओ जाने जिन मदिर का आयोजन किया गया। यह एक खुली प्रतियोगिता थी, जिसमें बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सभी ने हिस्सा लिया। इस प्रतियोगिता में बिलासपुर स्थित तीनों जैन मंदिरों से संबंधित सवाल पूछे गए, जैसे कि तीनों मंदिर जी में कितनी कितनी प्रतिमाये हैं, मंदिर जी की दीवारों में क्या क्या लिखा है, क्या क्या चित्र बने हैं, भगवन की वेदियों में क्या बना है, उसका मतलब क्या है आदि।
इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए श्रावकों ने तीनों मंदिर जी के दर्शन कर एक-एक चीज ध्यान से देखा। सही जवाब देने वाले प्रत्येक श्रावक को पुरस्कृत किया गया, लेकिन इस प्रतियोगिता में नियम रखा गया था कि एक परिवार में एक परिवार से एक ही व्यक्ति को पुरस्कार दिया जाएगा। इस ज्ञानवर्धिनी प्रतियोगिता का सभी ने बहुत आनंद लिया और 40 परिवारों ने पुरस्कार जीता। समर्पण समूह से अनुभूति जैन और डॉ. सुप्रीत जैन ने प्रतियोगिता का संचालन किया और दीपक जैन, अंशुल जैन एवं डॉ. अमित जैन ने प्रतियोगिता तैयार करने में सहयोग प्रदान किया।