दिगंबर जैन मंदिरों में दशलक्षण पर्व की धुम….. लघु नाटिका के माध्यम से बहुत ही मार्मिक तरीके से “असि – आवश्यकता वर्तमान की” का मंचन…. आत्मा को विशुद्ध करके परम पद से आभूषित हुआ जा सकता है, यही तप का माहात्म्य है – पंडित जयदीप शास्त्री

दिगंबर जैन मंदिरों में दशलक्षण पर्व की धुम….. लघु नाटिका के माध्यम से बहुत ही मार्मिक तरीके से “असि – आवश्यकता वर्तमान की” का मंचन…. आत्मा को विशुद्ध करके परम पद से आभूषित हुआ जा सकता है, यही तप का माहात्म्य है – पंडित जयदीप शास्त्री

बिलासपुर(अमर छत्तीसगढ) 15 सितंबर। ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है, जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो। भगवान ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हैं। वे जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर थे, इसके साथ ही भागवत् पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। उनके जीवन काल मतलब तीसरे काल में जब कल्पवृक्ष लुप्त होने लगे तो जनमानस को जीवन यापन की चिंता होने लगी, ऐसे समय में राजा ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और कला का अद्भुत ज्ञान प्रदान कर जीवन जीने की कला सिखाई। असि मतलब तलवार चलाना, मसि मतलब स्याही से लिखना, कृषि मतलब खेती के गुर, विद्या मतलब पठन-पाठन, वाणिज्य का अर्थ व्यापार और शिल्प मतलब कला।

जैन समाज अहिंसा के मार्ग पर चलने वाला सम्प्रदाय है, लेकिन यहाँ असि शिक्षा का मतलब है कि धर्म और साधु साध्वियों की रक्षा के लिए अगर अस्त्र शस्त्र उठाना पड़े तो उसमें कोई पाप नहीं है। वर्तमान समय में महिलाओ और बच्चियों पर हो रहे कदाचार से बचने के लिए जैन समाज द्वारा बच्चो को असि शिक्षा प्रदान की जा रही है।

इन्हीं वर्तमान परिस्थितियों को एक लघु नाटिका के माध्यम से बहुत ही मार्मिक तरीके से निर्देशित किया डॉ. सुप्रीत जैन एवं डॉ. श्रुति जैन ने, जिसका शीर्षक था असि – आवश्यकता वर्तमान की। इसमें अणिमा, अनोखी, पीहू, तृप्ति,आशय, रिद्धिमा, तान्या, हनु, आरु, सम्यक, अनवी, मिहिरा, प्रत्युष, परिशा, सोहिनी, अविशि, वेदांता, दिया, सर्वार्थ, रम्यक, विदित, अक्की, जीविका, लाव्या, चारु, सृष्टि, आशी, प्राशी, देशना, संवेद,आर्जव ने अपने अभिनय से एक नाटिका को जीवंत कर दिया।

जैसे अग्नि में तपाये बिना स्वर्ण कुंदन नहीं बनता और अग्नि के बिना भोजन सुपाच्य, सुस्वाद नहीं बनता, वैसे तप के बिना जीवन उन्नत और उज्जवल नहीं बनता है। हमारे भविष्य को उज्जवल बनाने वाला ये उत्तम तप धर्म है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिए जो अपनी आत्मा का विचार करता है उसके नियम से तप-धर्म होता है। यह बात सांगानेर से पधारे पंडित जयदीप शास्त्री जी ने जैन समाज के दशलक्षण पर्व के सातवें दिन उत्तम तप धर्म के अवसर पर कही।

शास्त्री जी ने उदाहरण देते हुए समझाया कि आम अभी हरा-भरा डाल पर लटक रहा है। अभी उसमें से कोई सुगन्ध नहीं आ रही है और रस भी चखने योग्य नहीं हुआ है, किन्तु बगीचे के माली ने उस आम को तोड़ा और अपने घर में लाकर पलाश के पत्तों के बीच रख दिया है। तीन-चार दिन बाद देखा तो वह आम पीले रंग का हो गया, उसमें मीठी-मीठी खुशबू आने लगी और रस में भी मीठापन आ गया, कठोरता के स्थान पर कोमलता आ गयी। खाने के लिए आपका मन ललचाने लगा और मुँह में पानी आ गया, इतना अविलम्ब परिवर्तन उसमें कैसे आ गया? तो माली ने बताया कि यह सब अतिरिक्त ताप/ऊष्मा का परिणाम है।

तप के सामने कठोरता को भी मुलायम होना पड़ता है और नीरस भी सरस हो जाता है। सुगन्धी फूटने लगती है और खटाई, खटाई में पड़ जाती है, अर्थात् मीठापन आ जाता है। आज तप का दिन है। अनादि काल से संसारी प्राणी इसी तरह कच्चे आम के रूप में रह रहा है। तप के अभाव में चाहे वह सन्यासी हो, वनवासी हो या भवनवासी हो अर्थात् महलों में रहने वाला हो, उसका पकना सम्भव नहीं है। तप के द्वारा भी पूर्व सञ्चित कर्म पककर खिर जाते हैं।

उन्होंने बताया कि तपश्चरण करना अर्थात् तपना जरूरी है और तपने की प्रक्रिया भी ठीक-ठीक होनी चाहिए। जैसे किसी ने हलुआ की प्रशंसा सुनी तो सोचा कि हम भी हलुआ खायेंगे। पूछा गया कि हलुआ कैसे बनेगा? तो किसी ने बताया कि हलुआ बनाना बहुत सरल है। तीन चीजें मिलानी पड़ती हैं। आटा चाहिए, घी और शक्कर चाहिए। तीनों को मिला दो तो हलुआ बन जाता है। उस व्यक्ति ने जल्दी-जल्दी से तीनों चीजें मिलाकर खाना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन स्वाद नहीं आया, आनन्द नहीं आया।

कुछ समझ में नहीं आया कि बात क्या हो गयी? फिर से पूछा कि जैसा बताया था उसी के अनुसार तैयार किया है लेकिन स्वाद क्यों नहीं आया? जैसा सुना था वैसा आनन्द नहीं आया। तो वह बताने वाला हँसने लगा, बोला कि अकेले तीनों को मिलाने से स्वाद नहीं आयेगा। हलुआ का स्वाद तो तीनों को ठीक-ठीक प्रक्रिया करके मिलाने पर आयेगा और इतना ही नहीं, अग्नि पर तपाना भी होगा। फिर तीनों जब धीरे-धीरे एकमेक हो जाते हैं, स्वाद तभी आता है और सुगन्ध तभी फूटती है।

तप की महत्ता के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि उन परमात्मा को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिन्होंने परमात्मा बनने से पहले ध्यान रूपी अग्नि में अपने को रत्नत्रय के साथ तपाया है और स्वर्ण की भाँति तपकर अपने आत्म-स्वभाव की शाश्वतता का परिचय दिया है। स्वर्ण की सही-सही परख अग्नि में तपाने से ही होती है। उसमें बट्टा लगा हो तो निकल जाता है और सौ टंच सोना प्राप्त हो जाता है। जैसे पाषाण में विद्यमान स्वर्ण से आप अपने को आभूषित नहीं कर सकते, लेकिन अग्नि में तपाकर उसे पाषाण से पृथक् करके, शुद्ध करके, उसके आभूषण बनाकर आभूषित हो जाते हैं। इसी प्रकार तप के माध्यम से आत्मा को विशुद्ध करके परम पद से आभूषित हुआ जा सकता है। यही तप का माहात्म्य है।

उन्होंने सभी श्रावकों से कहा कि जब तक शरीर स्वस्थ है, इन्द्रिय सम्पदा है, ज्ञान है और तप करने की क्षमता है तब तक तप को एकमात्र कार्य मानकर कर लेना चाहिए। क्योंकि वृद्धावस्था में जब शरीर साथ नहीं देता, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और ज्ञान काम नहीं करता, तब हाथ क्या आता है? केवल पश्चाताप ही हाथ आता है। यह शरीर भोगों के लिए नहीं मिला और न ही देखने के लिए मिला है, इसके द्वारा तो आत्मा का मन्थन करके अमृत पा लेना चाहिए।

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