राजनांदगांव(अमर छत्तीसगढ) 4 जून। विश्व पर्यावरण दिवस के अतिशय महत्तम परिप्रेक्ष्य में नगर के पर्यावरण विज्ञ डॉ. कृष्ण कुमार द्विवेदी ने समसामयिक विचार विमर्श में बताया कि वर्तमान में बढ़ता चतुर्दिक प्रदूषण, विलुप्त होते जलस्रोत, घटती हरियाली-हरितिमा के कारण निरंतर बढ़ते तापमान आदि से पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्षत: दिखाई देने लगा है।
जिसके फलस्वरूप संपूर्ण विश्व में पर्यावरणीय संकट इस तरह खड़ा हो गया है कि आज हमारे जीवंत ग्रह पृथ्वी पर जीवन बचाने का एक गंभीर मुद्दा सामने आया है। आज पर्यावरणीय प्रश्न ही प्रश्न है सांस के लिए हवा जहरीली हो चुकी है, पीने के पानी में प्रदूषण का जहर घुल चुका है, फसलें उगाने वाली मिट्टी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी है। इन गहन समस्याओं के कारण धरा पर सामान्य जीवनक्रम / चर्या भयावह हो चुकी है।
हवा, पानी, मिट्टी सब बुरी तरह दूषित हैं और इसीलिए मनुजता भी प्रदूषित है। नव तकनीक और विज्ञान की असंख्य उपलब्धियों के बावजूद सारा विकास पोथा लगता है।
इन गहन पर्या संकटों के मूल में वास्तव में मानव की अति भौतिकवादी विचारधारा युक्त जीवनचर्या हैं और उसके कार्य हैं। रही सही कसर प्लास्टिक कचरें / अवशिष्ट ने और बढ़ा दी है। वर्तमान में प्लास्टिक मानव जीवन में इस तरह घर कर गया है कि प्रत्येक कार्य /उपक्रम प्लास्टिक के बिना पूरा नहीं होता है। इसके कारण देश-धरती नें 42 लाख से ज्यादा लोग प्रतिवर्ष प्लास्टिक प्रदूषण से ग्रसित होकर काल कवलित होते जा रहे है।
आगे डॉ. द्विवेदी ने विशेष रूप से स्पष्ट किया कि संयुक्त राष्ट्र संघ के आकड़ों के आधार पर विगत अर्धशदी में ही पर्यावरण संकट बहुत बढ़ा है और जिसके लिए मनुष्य ही स्वयं जिम्मेदार है। इस गहन संकट से बचने और जन-जन को जागरूक करने के लिए ही यूएनओ ने सन 1972 से 5 जून को विश्व पर्यावरण मनाने का आह्वान किया था।
किन्तु उल्लेखनीय है कि वर्ष में केवल एक दिन पर्यावरण दिवस मनाकर हम विशालकाय धरती पर गहराते पर्यावरण संकट से बच नहीं सकते और ना ही मानव सभ्यता को बचा पायेंगे। इसके लिए आवश्यक होगा कि सभी देशों में सर्व जन-जन मिलकर पर्यावरण संरक्षण के लिए मन-प्राण से संकल्पित हों।
घर-घर में हरियाली हो, जल संरक्षण के प्रभावी उपाय हो और मिट्टी को प्रदूषित होने से बचाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति नित्य जीवनक्रम में एक / दो घंटे पर्यावरण संरक्षण – संवर्धन हेतु कुछ काम करें, पहल करें।
हमारी सनातन संस्कृति के अनुसार प्राकृतिक पर्यातत्वों को देवतुल्य मानकर संरक्षण-संवर्धन की पुरातन पहल आवश्यक और सामयिक है। वस्तुत: पर्यावरण बचेगा तो सबके प्राण बचेंगे।