समता भवन में बह रही है प्रवचन की अविरल धारा
राजनांदगांव(अमर छत्तीसगढ़) 15 जुलाई।रत्नत्रय के माहान आराधक, परमागम रहस्यज्ञाता, परम पूज्य श्रीमद जैनाचार्य श्री रामलाल जी म.सा.के आज्ञानुवर्ती व्याख्यान वाचस्पति शासन दीपक श्री हर्षित मुनि ने कहा कि अहंकार की तुष्टि से हम प्रपंच रचते ही रहते हैं। चंद लोगों की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए हम उनके पीछे पूंजी खर्च करते रहते हैं। हमारा अहंकार अंदर से बोलता है।
मुनिश्री ने कहा कि अंदर का अहंकार बाहर निकलने का मौका देखता रहता है। वह दूसरे पर अपनी छाप छोड़ना चाहता है। उन्होंने कहा कि वह जिस पर अपनी छाप छोड़ना चाहता है ,वह ही उसके साथ नहीं होता। आप अपने अंदर के अहम को पुष्ट करने में लगे रहते हैं। उधर सामने वाला भी मौका ढूंढते रहता है कि उसे कब बोलने का मौका मिले और वह भी अपने अहंकार को पुष्ट कर सके। उन्होंने कहा कि आपके महत्व को पुष्ट करने की जरूरत नहीं जिस तरह गुलाब को अपनी सुगंध पुष्ट करने की जरूरत नहीं होती, व्यक्ति स्वयं ही उसके पास खींचा चला जाता है। अहंकार को तुष्टि नहीं मिलती उसे चोट लगती है और वह प्रतिद्वंदिता की दौड़ में दौड़ते रहता है।
मुनिश्री ने कहा कि आपका अहंकार कुछ न कुछ मांगता रहता है। आवश्यकता की पूर्ति तो समझ में आती है किंतु अहंकार की पूर्ति कब तक करते रहोगे, अहंकार की दौड़ में आप कब तक और किसके लिए दौड़ते रहेंगे? अहंकार की तुष्टि के लिए आप अपने सिर पर टेंशन ले लेते हैं। अहंकार छोटे को बड़े के सामने बोलने के लिए आतुर कर देता है । यह आपकी विनम्रता को नष्ट कर देता है। मुनिश्री ने कहा कि अहंकार यदि उछल रहा है तो उसे दबाना जरूरी है। अहंकार बोलते समय संतुष्टि देता है किंतु बाद में वह कटु ( कड़वा ) हो जाता है। उन्होंने कहा कि जब तक चित्त में उदारता रहती है तब तक पुण्याई भी साथ चलती रहती है। व्यक्ति सोचता है कि उसके पुरुषार्थ की वजह से उसका व्यापार चल रहा है जबकि उनके घर वालों की पुण्याई भी उसके साथ होती है। उन्होंने कहा कि छोटे-छोटे काम भी व्यक्ति को करना चाहिए, उसे तुच्छ नहीं समझना चाहिए।यह जानकारी एक विज्ञप्ति में विमल हाजरा ने दी।