रायपुर(अमर छत्तीसगढ़)। आप घर में सब्जी बनाते हो और उसे एक दिन में ही खत्म कर देते हो। वैसे ही आप अचार भी बनाते हो और वह महीनों तक चलता है। क्रोध और बैर भी इन्हीं की तरह होते हैं। क्रोध सब्जी की तरह होता है एक दिन के अंदर वह खत्म हो जाता है। वैसे ही बैर अचार की तरह होता है क्योंकि आपके मन में लंबे समय तक रहता है। क्रोध और बैर का एक ही उपाय है, वह है क्षमा। यह बातें विवेकानंद नगर स्थित महावीर स्वामी जिनालय में चल रहे छात्र मासिक प्रवचन के दौरान मंगलवार को साध्वी स्नेहयशाश्रीजी ने कही।
साध्वीजी ने बताया कि हमें चातुर्मास के दौरान जप-तप और साधना का क्रम जारी रखना है और हमारे किए गए पापों को खत्म कर देना है। इस दौरान हमें क्रोध और बैर का उपवास करना है। पूरे दिन यह चिंतन करो कि आज क्रोध ना आए। क्योंकि हमें पूर्ण बनना है। पूर्ण बनने के लिए हमें मग्नता चाहिए और मग्न होने के लिए हमें स्थिरता चाहिए।
शरीर का मोह त्याग करने से आएगी स्थिरता
साध्वीजी कहती हैं कि हम एक जगह कभी स्थिर नहीं बैठ सकते। यह स्थिरता नहीं आने का क्या कारण है। हम पांच मिनट तक भी एक पोजीशन में नहीं बैठ सकते हैं। हर मिनट हम हाथ पैर हिलाने लग जाते हैं। हम कब अस्थिर हो जाते हैं हमें पता भी नहीं लगता है। इस मोहादि भाव के कारण हम अस्थिर हो जाते हैं। हमारे शरीर के प्रति हमें मोह है, इसके चलते हम अस्थिर रहते हैं। जरा सा भी हाथ में दर्द हुआ या पैर में झुनझुनी हुई तो हम हाथ-पैर सीधे करने लगते हैं। हाथ-पैर या सिर में हल्की सी खुजली भी हो जाए तो हम वहां हाथ फेर ही देते हैं। जबकि भगवान महावीर ने साढ़े 12 वर्षों तक अपना हाथ-पैर नहीं हिलाया और खुजली होने पर कभी भी सिर पर अपना हाथ भी नहीं फेरा। वहीं, हम अगर किसी काम को मग्नता के साथ कर रहे हो और कहीं जरा की खुजली भी हो जाए तो हमारा हाथ वहां चला जाता है और इसका हमें ध्यान ही नहीं रहता क्योंकि हम राग में रह रहे हैं। इस शारीरिक मोह के चलते हम स्थिर नहीं हो पाते है और स्थिरता के बिना मग्नता नहीं आती। वैसे ही मग्नता के बिना हमें पूर्णता नहीं मिलेगी।
किसी के दुख की नहीं, पाप की चिंता करो
साध्वीजी कहती हैं कि एक दूसरे से हमें शरीर का राग होता है। आप किसी की चिंता करते हो तो आप उनके दुख की चिंता करते हो पर उनके पाप की नहीं करते। दुख तो फल है लेकिन पाप दुखों की जड़ है। हमारा प्रयत्न दूसरों का दुख दूर करने का रहता है, पाप दूर करने का नहीं। जबकि पापों का फल ही दुख है। जिस दिन इस संसार से पाप हट गया, उस दिन पूरी दुनिया से दुख खत्म हो जाएगा। आप मकान बनाने के लिए जमीन चुनते हो उसकी सफाई करवाते हो और जमीन के अंदर पेड़ों के जड़ को कटवा देते हो। आसपास के पेड़ों की जड़ इतनी लंबी होती है, जिसका आप अनुमान भी नहीं लगा सकते हो। आप स्थानीय जड़ को काटकर अपना मकान बना लेते हो फिर 20-25 साल बाद वह जड़े फिर से उपजने लगती है, वैसा ही जड़ पाप का होता है। साध्वीजी कहती है कि वैसे ही देवों का शरीर पारे के समान होता है। हमारे शरीर में खून, मांस और हड्डियां होती है। मृत्यु होने के बाद शरीर को जलाना पड़ता है। उस शरीर को ज्यादा से ज्यादा 1 से 2 दिन ही रखा जाता है, वो भी केमिकल डाल कर। पर देवों का शरीर पारे के सामान होता है, उनके खत्म होते ही उनका शरीर कपूर की तरह उड़ जाता हैं। इस शरीर के लिए हमने मोह पाल रखा है, जो कि एक दिन जल जाना है। इसीलिए हमें पापों से मुक्त होना होगा, क्योंकि जब हम पाप से दूर होंगे तब दुखों से भी हमें मुक्ति मिलेगी। संसार का मतलब ही दुखो का स्थान है। इच्छा ही सबसे बड़ा पाप है। जो साधु बनते हैं वह अपनी इच्छाओं का त्याग कर देते हैं। क्योंकि इच्छा है तो मकान है, इच्छा है तो दुकान है, इच्छा है तो पत्नी है और इच्छा है तो बच्चे हैं। एक इच्छा करना भी बड़ा पाप होता है क्योंकि वह लाखों दुख को पैदा कर सकता है। आपकी इच्छाएं खत्म हो जाएगी तो आप संतोषजनक हो जाओगे और सुखी रहोगे।