रायपुर(अमर छत्तीसगढ़)। न्यू राजेंद्र नगर स्थित महावीर जिनालय में चल रहे भव्य आध्यात्मिक चातुर्मास के दौरान साध्वी स्नेहयशाश्रीजी ने शनिवार को कहा कि आपके घर में बाई काम करने आती है और वह कहती है कि मेरे पैसे बढ़ा दो तो आप उसे टाल देते हो। अगर वह बाई घर में चोरी करते पकड़ा जाए तो भी आप उसकी मजबूरी नहीं समझते। जबकि आप यह जानते हो कि उसे पैसों की जरूरत थी और उसने इसकी मांग उसने पहले ही आपसे की थीं। फिर भी आप उसे परेशान करते हो और पूछते हो कि चोरी क्यों की और आप उस पर हावी होने लग जाते हो। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। आपको उसकी मदद करनी चाहिए।
ज्ञान सर सूत्र के तीसरे अध्याय स्थिरता के विषय पर साध्वीजी बताती है कि क्या हमारा मन इतना कमजोर है कि जो जरूरत की चीजें यह ग्रहण नहीं कर सकता और जो अनावश्यक हो उसे वह ग्रहण करके रखता है। उसे अपने मन में स्थिर करके रखता है। इसके चलते व्यक्ति के दिमाग में अंदर कचरा ही कचरा भरा होता है। छोटी सी छोटी साधना के लिए हमें छोटे-छोटे सामानों की आवश्यकता पड़ती है। अगर हम बड़ी क्रिया करते हैं तो छोटी-छोटी वस्तुओं को मिलाकर ही हम उसे बढ़ाते है और आपकी पूजा भी बड़ी हो जाती है।
हमेशा छोटे कामों से शुरुआत करें
अगर एक डॉक्टर ऑपरेशन करता है उसे आपके शरीर से कोई गठान गांव या छाला निकालना हूं तो वह छोटे-छोटे औजारों का उपयोग करता है उसे कोई तलवार या खंजर की जरूरत नहीं पड़ती हजार छोटे होते हैं और धारदार होते हैं ताकि एक बार में उनका काम हो जाए वैसे ही हमें अपने मन में स्थिरता लानी है दिमाग को धारदार रखना है ताकि हम छोटे-छोटे कामों को आसानी से कर सकें और कोई भी काम हमें बड़ा ना लगे अगर आपके पैर में कोई कांटा चुभ जाता है तो उसे निकालने के लिए भी आप धारदार कांटे यह सुन का उपयोग करते हो ऐसे ही हमें अपने मन के अंदर भारत बनाए रखना है। एक छोटी पूजा करने के लिए भी आपको अपने मन में स्थिरता चाहिए। स्थिरता लाकर की आप बड़ी पूजा और अनुष्ठान कर सकते हैं। अगर आप कोई तप कर रहे हैं तो आपको अपनी इच्छाओं पर काबू रखना होगा। साधु संत इच्छाओं का त्याग करते हैं, जो उन्हें मिलता है वह खाकर संतुष्ट रहते हैं। चाहे खाने में उन्हें कितनी भी वैरायटी और स्वाद मिल जाए वह अपने भूख के अनुसार ही खाते हैं और संतोष कर लेते हैं। साध्वीजी कहती है कि अगर आप भंडारे में प्रसाद लेने जाते हैं तो आपको यह पता नहीं होता कि भंडारे में कौन सा व्यंजन बना है। जब आप जाते हो तभी आपको पता चलता है कि वहां क्या बना है और उसे आप भगवान के प्रसाद स्वरूप ग्रहण कर लेते हो। ऐसे ही संतोष आपको अपने मन में लाना है और स्थिरता को पाना है। अगर आप भंडारे में डिब्बा लेकर जाते हो तो भी आप भंडारे का अपमान करते हैं। क्योंकि कोई भी साधु-संत अपने साथ किसी के घर से भोजन नहीं लाते है। उन्हें जो मिलता है, उसे वे वहीं खा लेते है।
जीवन चक्र काे समझें, यह आपके चारों ओर घूमता है
जीवन चक्र के बारे में साध्वीजी कहती है कि एक बार एक वैश्या को अमर फल मिल जाता है उसे खाकर वह अमर हो सकती थी लेकिन उसने सोचा कि मैं तो बहुत बड़े पाप का काम करती हूं। यह फल अगर मैं अपने साम्राज्य के राजा को दे दूं तो वे न्याय प्रिय हैं और लोगों की सेवा करने में लगे रहते हैं। इसे खाकर वह लंबे समय तक लोगों की सेवा करेंगे तो यह राज्य के लिए बहुत अच्छा हो जाएगा। अमर फल को लेकर वह राजा के पास जाती है और उन्हें वह फल दे देती है। राजा सोचता है कि अगर मैं इस फल को खा लूं और अमर हो जाऊं तो रानी का क्या होगा। मैं रानी के बिना जिंदा रह कर क्या करूंगा। वह उस फल को रानी को दे देता है लेकिन रानी का मन महावत की ओर होता है और वह सोचती है कि कि यह फल में महावत को दे दूं तो महावत हमेशा मेरे साथ रहेगा। ऐसा सोचकर वह फल रानी, महावत को दे दे देती है। फल को लेकर महावत सोचता है कि मैं तो वैश्या को चाहता हूं अगर वह नहीं रहेगी तो मैं जी कर क्या करूंगा। एेसा सोचकर वह फल वह वैश्या को देता है। वैश्या फिर से उसी सोच के साथ वह फल राजा के पास लेकर जाती है। इस पर राजा पूछता है कि यह वहीं फल है या नया फल है। वह कहती है कि मुझे तो नहीं पता पर यह फल मुझे महावत ने दिया है। महावत से पूछने पर वह बताता है कि यह फल मुझे रानी ने दिया है और इस तरह राजा जान लेता है कि मैंने तो यह फल रानी को दिया था और वह अपने जीवन चक्र को समझ जाता है। कुछ ऐसे ही हमारे जीवन में चलता रहता है। जिस चक्र को अगर हम जान जाए तो हमें हमारा जीवन समझ में आ जाएगा। इसलिए जीवन चक्र की उलझनों के बजाय हमें हमारे मन को स्थिर रखने की आवश्यकता है।