मुमुक्षु वह होता है जिसे मोक्ष पाने की लालसा होती है
राजनांदगांव (अमर छत्तीसगढ)30 अक्टूबर। जैन संत श्री हर्षित मुनि ने आज यहां कहा कि जो कार्य अधूरा पड़ा है हम उसकी सोचते नहीं है, हमारे जाने के बाद परिवार वालों को किसी तरह का कष्ट ना हो , उन्हें भटकना न पड़े, हम इसे ही सोचते रहते हैं। उन्होंने कहा कि त्याग तो अच्छी बात है किंतु त्याग के पीछे वैराग्य की भावना भी छुपी होनी चाहिए तभी वह त्याग सफल होगा।
समता भवन में आज अपने नियमित प्रवचन में जैन संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि त्याग और वैराग्य दो अलग चीजें हैं। मुमुक्षु वह होता है जिसके अंदर मोक्ष पाने की लालसा हो। किसी चीज को छोड़ देना त्याग है किंतु वैराग्य उस चीज के ममत्व को छोड़ना है। उन्होंने कहा कि आपने एक साल के लिए मिठाई खाना छोड़ दिया तो यह त्याग हुआ किंतु इसके बाद मिठाई के ममत्व को छोड़कर हमेशा के लिए मिठाई नहीं खाना, यह वैराग्य की भावना हुई। हम एक साल तक मिठाई का त्याग तो कर देते हैं किंतु वक्त के बीतने का इंतजार करते रहते हैं कि कब एक साल पूरा हो और हम मिठाई खाएं। त्याग गलत नहीं है किंतु त्याग के साथ वैराग्य की भावना जुड़ी होने से हम मिठाई के बारे में सोचेंगे ही नहीं।
जैन संत ने फरमाया कि व्यक्ति सोचता है कि पहले वैराग्य की भावना आ जाए तो फिर त्याग करूंगा। ऐसी सोच रखने वाले वैराग्य को कभी प्राप्त नहीं कर पाते। यदि मिठाई के प्रति वैराग्य की भावना नहीं आई तो जीवन भर हम मिठाई ही खाते रहेंगे। उन्होंने कहा कि त्याग की भावना प्रकट होने लगे तो यह भावना धीरे-धीरे वैराग्य की ओर बढ़ने लगती है। हमें आध्यात्मिक परिपूर्ण व्यक्ति को देखकर वैराग्य की भावना आनी चाहिए। ऊपर ऊपर का त्याग हो लेकिन भीतर वैराग्य ना हो तो क्या फायदा! हम ज्यादा नहीं साध सके तो आंख और जिव्हा को जरूर साधें। अगर यह दोनों को व्यक्ति साध ले तो वैराग्य की ओर उसके कदम अपने आप बढ़ेंगे और आप राग व द्वेष से दूर रहेंगे। यदि आपने ऐसा किया तो आपका जीवन धन्य हो जाएगा। यह जानकारी एक विज्ञप्ति में विमल हाजरा ने दी।