सूरत(अमर छत्तीसगढ) 7 अगस्त। किसी वस्तु का दान करे तो सुख ओर वस्तु गुम हो जाए तो दुःख होता है। दान देने से हमेशा सुख की अनुभूति होनी चाहिए क्योंकि हम जो भी दान करते है वह किसी न किसी भव में वापस हमे ही मिलता है। त्याग,तपस्या करने से हमेशा आत्मीय सुख की अनुभूति होती है। तपस्या तन ओर मन दोनों को निर्मल व पावन बनाती है। इसलिए जब भी अवसर मिले त्याग तपस्या करते रहना चाहिए।
ये विचार मरूधरा मणि महासाध्वी जैनमतिजी म.सा. की सुशिष्या सरलमना जिनशासन प्रभाविका वात्सल्यमूर्ति इन्दुप्रभाजी म.सा. ने बुधवार को श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ गोड़ादरा के तत्वावधान में महावीर भवन में आयोजित चातुर्मासिक प्रवचन में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि कर्म किसी को नहीं छोड़ते चाहे वह राजा हो या रंक हो। इसलिए पाप कर्म का बंध कभी नहीं करना चाहिए।
आज जिन कर्मो का बंध कर रहे उनके परिणाम कौनसे जन्म में भोगने पड़ेंगे कोई नहीं जानता। कर्म बंधन से बचने के लिए धर्म की शरण में जाना होगा। रोचक व्याख्यानी प्रबुद्ध चिन्तिका डॉ. दर्शनप्रभाजी म.सा. ने कहा कि जब तक सांसारिक व भौतिक सुखों के प्रति आसक्ति कायम रहेंगी तब तक तप त्याग कुछ नहीं कर पाएंगे।
शरीर में अनासक्ति के भाव आ जाए तो पाप कर्म छूट जाएंगे ओर हम तप त्याग कर सकते है। संसार से ज्यादा मोह नहीं रखे ओर हमेशा याद रखे कि यहां कोई टिकने वाला नहीं है जो आया है उसे एक दिन वापस जाना ही है। हमारी संसार यात्रा सार्थक बन सके इसके लिए धर्म की शरण में जाए।
जितना अधिक तप त्याग हम स्वीकार करेंगे उतना ही सांसारिक मायाजाल कम होता जाएगा। त्याग करना छोड़ना सीखाता है। जितना छोड़ते जाएंगे उतना ही परमात्मा के नजदीक पहुंच पाएंगे। उन्होंने सामायिक साधना की प्रेरणा देते हुए कहा कि एक उपवास करने से अधिक कठिन कार्य एक साथ आठ सामायिक करना है।
तत्वचिंतिका आगमरसिका डॉ. समीक्षाप्रभाजी म.सा. ने सुखविपाक सूत्र का वाचन करते हुए कहा कि श्रावक-श्राविकाओं को कर्म क्षय करने के लिए हमेशा दान देते रहना चाहिए ओर मन में इसकी भावना भी आते रहना चाहिए। चार प्रकार के दान बताए गए है जिनमें दान, शील, तप व भावना शामिल है। दानों में सबसे बड़ा दान किसी को अभयदान देना माना जाता है। जीवन में जब भी अवसर मिले किसी को अभयदान देने का प्रयास करना चाहिए।
उन्होंने श्रावक के 12 व्रत में से पांचवे व्रत अपिरग्रह को समझाते हुए कहा कि मानव भव में ही दान करने का अवसर मिलता है। धन की शुद्धि दान करने से होती है। वेद को समझना सरल है लेकिन वेदना को समझना कठिन होता है। अगर हम किसी का भला करते है तो उसका सुफल हमे अवश्य प्राप्त होता है। धर्मसभा में आगम मर्मज्ञा डॉ. चेतनाश्रीजी म.सा., सेवाभावी दीप्तिप्रभाजी म.सा. एवं विद्याभिलाषी हिरलप्रभाजी म.सा. का भी सानिध्य रहा।
सुश्राविका शिमलाजी ने लिए 14 उपवास के प्रत्याख्यान
चातुर्मास में महासाध्वी मण्डल की प्रेरणा से धर्म ध्यान व तप साधना का दौर निरन्तर जारी है। सुश्राविका शिमला सांखला ने पूज्य इन्दुप्रभाजी म.सा. के मुखारबिंद से 14 उपवास के प्रत्याख्यान ग्र्रहण किए तो अनुमोदना में हर्ष-हर्ष, जय-जय गूंजायमान हो उठा। रतनलालजी हिंगड़ ने 5 उपवास के प्रत्याख्यान ग्रहण किए।
कई श्रावक-श्राविकाओं ने तेला,बेला, उपवास,आयम्बिल, एकासन आदि तप के भी प्रत्याख्यान लिए। पचरंगी के साथ सिद्धी तप की आराधना भी चल रही है जिसके तहत एक ही आसन की 8-8 सामायिक करनी है। बच्चों के लिए 15 दिवसीय चन्द्रकला द्रव्य मर्यादा तप आराधना के तहत बुधवार को 8 द्रव्य उपरान्त त्याग रहा।
धुलिया गौशाला से पधारे प्रमोदजी खिंवेसरा को गोड़ादरा श्रीसंघ की ओर से 11 हजार रूपए की राशि गौवंश संरक्षण के लिए प्रदान की गई। सभा में अतिथियों का स्वागत श्रीसंघ एवं स्वागताध्यक्ष शांतिलालजी नाहर परिवार द्वारा किया गया।
संचालन श्रीसंघ के उपाध्यक्ष राकेश गन्ना ने किया। चातुर्मास में प्रतिदिन प्रतिदिन सुबह 8.45 से 10 बजे तक प्रवचन एवं दोपहर 2 से 3 बजे तक नवकार महामंत्र का जाप हो रहे है। प्रतिदिन दोपहर 3 से शाम 5 बजे तक धर्म चर्चा का समय तय है।
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, लिम्बायत,गोड़ादरा,सूरत
सम्पर्क एवं आवास व्यवस्था संयोजक –
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शांतिलाल शिशोदिया 9427821813
प्रस्तुतिः निलेश कांठेड़
अरिहन्त मीडिया एंड कम्युनिकेशन,भीलवाड़ा
मो.9829537627