*जैन समाज में चल रहे दसलक्षण पर्व का चतुर्थ धर्म – उत्तम शौच धर्म – डॉ अरिहंत जैन*

अपने मल को जिस दिन तुमने, सचमुच मेे पहचान लिया,लोभ कषाय को जब भी तुमने, अपना मल ही मान लिया।पाप कर्म को छोड़कर तुमने, पुण्य हाथ को थाम लिया,इसी पवित्रता से बढ़े चले तो, धर्म शौच भी जान लिया।।

जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए स्वच्छता व सफाई जरूरी है, इसी सफाई का नाम है – शौच धर्म। *शुचिता के भाव को शौच कहते हैं,* बाहर की स्वच्छता का हम दिन-रात ध्यान रखते हैं तथा अपने शरीर की स्वच्छता में भी पूर्णता जुटे हुए रहते हैं, लेकिन जैन दर्शन कहता है बाहर की सफाई नहीं, मन की सफाई सबसे बड़ी है । *तन शुद्धि से बड़ी , मन शुद्धि होती है* आत्मा को मलिन बनाने वाला तत्व कषाय है । क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे विकार हैं, जो हमारी आत्मा या मन को गंदा बना रहे हैं। क्रोधी व्यक्ति अंधा होता है उसे कुछ सूझता नहीं। मानी व्यक्ति किसी की कुछ सुनता नहीं। मायावी व्यक्ति की जबान का कोई भरोसा नहीं होता और लोभी व्यक्ति उसकी क्या कहें उसकी तो नाक कट जाती है । क्रोध ने हमारी आंखे छीन ली, मान ने कान, माया ने हमारी जिव्या के अर्थ बदल दिए और लोभ ने हमारी नाक कटवा दी ।क्रोध, मान, माया और लोभ यह चारों कषाय हैं पर चारों का उत्प्रेरक लोभ है । लोभ के कारण ही व्यक्ति माया चारी बनता है। जब उसके मन में किसी चीज के प्रति आकर्षण होता है उसका मन मुग्ध हो जाता है तथा वह उसे पाने के लिए चाहे जैसे हथकंडे अपनाता है । हम अपने इतिहास को पलट कर देखें, अतीत में जितने भी युद्ध हुए हैं वह सब लोभ के कारण हुए हैं । कर्म सिद्धांत की दृष्टि से भी यदि विचार किया जाए तो क्रोध, मान, माया पहले नष्ट हो जाते हैं और लोभ का क्षय सबसे अंत में होता है। इसलिए आज हम शौच धर्म की चर्चा करते हुए यह कहते हैं कि *यदि हमें अपनी आंतरिक स्वच्छता को प्राप्त करना है तो लोभ को छोड़ना होगा और यही शौच धर्म कहलाता है ।* आओ इस पावन दिवस पर हम अपनी आकांक्षाओं को नियंत्रित करें तथा अपने अंदर की सारी अपवित्रता को दूर कर शौच धर्म को जीवन में अपनाएं।

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