सूरत गुजरात (अमर छत्तीसगढ) 29 जुलाई ।
भारत के पश्चिम तट पर बसे भारत के एक समृद्ध राज्य के रूप में पहचान रखने वाले गुजरात का प्राचीनकाल से भारत के कपड़े के व्यवसाय और हीरे के सबसे बड़े व्यावसायिक शहर के रूप में प्रख्यात ताप्ती नदी के तट पर बसे सूरत शहर को आध्यात्मिक शिरत प्रदान करने के लिए पधारे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की अमृतमयी वाणी से अविरल ज्ञानगंगा प्रवाहित हो रही है। वर्तमान में आयारो आगम के माध्यम से आचार्यश्री सूरत शहरवासियों व देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से गुरु सन्निधि में पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को अपनी अमृतवाणी का रसपान करा रहे हैं।
गत आठ दिनों से आसमान में डेरा बादलों ने सोमवार को पुनः बरसात प्रारम्भ की। इस कारण आचार्यश्री का महावीर समवसरण में पदार्पण नहीं हो पाया, किन्तु जन-जन का कल्याण करने के लिए अपनी अमृतवर्षा को प्रवास स्थल से ही करने का निर्णय किया। तदुपरान्त महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी अमृतमयी वाणी से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी अपराध में भी चला जाता है, हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है। प्रश्न होता है कि आदमी हिंसा में क्यों जाता है? हिंसा में जाने का कारण क्या है? हिंसा दो प्रकार की होती है- आरम्भजा और संकल्पजा। जीवन चलाने के लिए, इस शरीर को टिकाए रखने के लिए भोजन, पानी, कृषि आदि कार्य करना आवश्यक होता है।
सामन्यतया हर आदमी को उससे बच पाना मुश्किल होता है। खेती में हिंसा हो सकती है, भोजन पकाने में भी हिंसा हो सकती है और भी नहाने-धोने आदि कार्य भी में हिंसा हो सकती है। यह सारे कार्य शरीर का टिकाए रखने के लिए किए जाने वाले कार्य हैं। इनमें होने वाली हिंसा आवश्यक कोटि की हिंसा होती है। हालांकि साधु की अहिंसा तो बहुत उच्च कोटि की अहिंसा होती है। इसके बावजूद भी उसके शरीर से हिंसा हो सकती है। आयारो में बताया गया कि पीड़ित आदमी, दुःखी आदमी संकल्पजा हिंसा में जा सकता है। भूखमरी, बेरोजगारी, अभावग्रस्त आदमी अपराध और हिंसा में जा सकता है। दूसरी बात बताई गयी कि आदमी अपने आवेश के कारण भी हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है। लोभ और गुस्से के कारण से भी आदमी हिंसा में प्रवृत्त हो सकता है। अज्ञान के कारण से भी आदमी हिंसा और अपराध मंे जा सकता है।
आदमी को ज्ञान हो जाए तो आदमी हिंसा व अपराध से बच सकता है। जिस प्रकार आदमी को ज्ञान हो जाए कि अंडा, मांस, मछली नहीं खाना, जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए तो आदमी अहिंसा की दिशा में आगे भी भी बढ़ सकता है। ज्ञान को ग्रहण कर उसके पालन के प्रति संकल्प जाग जाए तो आदमी हिंसा और अपराध से बच सकता है। प्रवचन आदि के माध्यम से भी ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। अभाव, आवेश और अज्ञान को दूर कर दिया जाए तो आदमी हिंसा और अपराध से बच सकता है।
मंगल प्रवचन के उपरान्त शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने चक्रवर्ती सनत्कुमार के आख्यान क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सनत्कुमार को जैसे ही अपने शरीर की कुरूपता का पता चला, वह अपना साम्राज्य छोड़कर संन्यास के पथ पर बढ़ चला। इस आख्यान का आचार्यश्री के श्रीमुख से संगान और आख्यान का श्रवण कर सूरत की जनता निहाल नजर आ रही थी।