-आयारो में वर्णित हिंसा के कारणों को शांतिदूत ने किया व्याख्यायित
-सनत्कुमार के आख्यान को आचार्यश्री ने किया सम्पन्न
-द्विदिवसीय प्रेक्षाध्यान सम्मेलन महातपस्वी के मंगल आशीष से सुसम्पन्न
सूरत गुजरात (अमर छत्तीसगढ) 31 जुलाई ।
तेरापंथाधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को महावीर समसरण में समुपस्थित जनता को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी को सुनने से संबोधि प्राप्त हो सकती है। प्राचीन काल में हो सकता है, ज्ञान का एक बड़ा माध्यम सुनना था। आज तो संभवतः परिस्थितियां बदली हैं। सुनना तो साधन हैं ही, आजकल सुनना भी बड़ी सुविधापूर्ण हो गया है।
प्राचीनकाल में कोई श्रोता वक्ता के समक्ष साक्षात् उपस्थित रहता तो सुन लेता अथवा वक्ता की आसपास आवाज जाती तो कोई सुन लेता, परन्तु आज तो हजारों-सैंकड़ों कोंसो दूर बैठे भी तत्काल प्रवचन की आवाज आती है, इसका अर्थ है कि आजकल सुनना भी आसान हो गया है। इसके अलावा आज इतना साहित्य उपलब्ध है कि पढ़कर भी ज्ञान प्राप्त करने में सफलता प्राप्त हो सकती है।
यहां आयारो आगम में कहा गया कि अर्हत्, तीर्थंकर के पास कोई सुन ले अथवा अनगार साधुओं के पास कोई उनकी कल्याणी वाणी को सुन ले तो उसे हिंसा के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकती है। प्रवचन को सुनना अथवा बातचीत के माध्यम से कुछ सुनने से स्पष्टता हो सकती है, ज्ञानार्जन हो सकता है। बातचीत के माध्यम से कितनों की जिज्ञासाओं का समाधान कर श्रद्धालु बनाया जा सकता है। एक वक्ता की वाणी, जो कल्याणी हो, उसके कारण कितनों को ज्ञान मिल सकता है।
जब आदमी हिंसा के बारे में जानता है कि हिंसा का परिणाम खराब आने वाले हैं तो आदमी के मन में यह भाव जाग सकता है कि मुझे ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। यहां आयारो आगम में हिंसा के दुष्परिणाम बताए गए हैं। हिंसा चित्त को व्यथित करने वाली है। हिंसा करने वाला अपनी आत्मा को बंधन में डाल सकता है।
कर्म बंधन से उसका परिणाम भोगना पड़ता है। हिंसा के साथ भाव भी महत्त्वपूर्ण होता है। जैसे कोई डॉक्टर आदि मरीज का ऑपरेशन करते हैं, इंजेक्शन लगाता है तो थोड़ा तो कष्ट होता ही है, किन्तु उसकी भावना कष्ट देना नहीं, बल्कि मरीज को ठीक करने की भावना होती है।
मोहनीय कर्म के उदय के बिना आदमी हिंसा नहीं कर सकता। मोहनीय कर्म के उदय से ही आदमी हिंसा में प्रवृत्त होता है। हिंसा के होने में अतीत के मोहनीय कर्म का बंध वर्तमान में हिंसा होता है और फिर व भविष्य के लिए बंध कर लेता है। हिंसा तो मानों मृत्यु ही है। हिंसा नरक के समान है। नरक गति का बंध कराने का एक कारण हिंसा भी है। हिंसा नरक का द्वार है।
इस प्रकार की जानकारी साधु अथवा भगवान अर्हत की वाणी से प्राप्त होती है तो आदमी यह सोच सकता है कि मैं हिंसा से अपना बचाव करूं। इस प्रकार साधु अथवा तीर्थंकरों की वाणी से कितनों को संबोध मिल सकता है और सुनने वाले का उद्धार हो सकता है। यह चतुर्मास का समय प्रवचन श्रवण के माध्यम से बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। चतुर्मास के दौरान आगम के माध्यम से प्रवचन का श्रवण कितना लाभ प्रदान करने वाली हो सकती है। निर्ग्रन्थों की वाणी के श्रवण से लोगों का कल्याण हो सकता है।
आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करने के उपरान्त आचार्यश्री ने उपस्थित जनता को आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित ‘चन्दन की चुटकी भली’ पुस्तक में वर्णित चक्रवर्ती सनत्कुमार के आख्यान का भी श्रवण कराते हुए सनत्कुमार के आख्यान क्रम को सम्पन्न किया।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में आयोजित द्विदिवसीय प्रेक्षाध्यान सम्मेलन का मंचीय कार्यक्रम भी समायोजित हुआ। इस संदर्भ में प्रेक्षा इण्टरनेशनल के अध्यक्ष श्री अरिवंद संचेती, अखिल भारतीय अणुव्रत न्यास के मुख्य न्यासी केसी जैन, प्रेक्षा फाउण्डेशन के चेयरमेन अशोक चण्डालिया व प्रेक्षा एकेडमी के अध्यक्ष भेरुलाल चोपड़ा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। प्रेक्षाध्यान के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि कुमारश्रमणजी ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आशीष प्रदान करते हुए कहा कि प्रेक्षाध्यान लोककल्याणकारी और आत्मकल्याणकारी तत्त्व है। दूसरी दृष्टि से प्रेक्षाध्यान तेरापंथ से जुड़ा हुआ है। यह पद्धति 1975 में प्रारम्भ हुई थी। इस चतुर्मास के दौरान 30 सितम्बर से इसका पचासवें वर्ष का प्रसंग प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष प्रारम्भ होने वाला है।
प्रेक्षाध्यान का क्रम तो अब विदेशों में भी काफी अच्छे रूप में हो रहा है। ऑनलाइन माध्यम से भी क्लास और शिविर का कार्य हो सकता है। यह चतुष्कोणीय प्रेक्षाध्यान की कार्यकारी संस्थाएं माध्यम बनी हुई हैं। ये चारों संस्थाएं अपने-अपने ढंग से इस धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधि को आगे बढ़ाने का प्रयास करे ।