बिलासपुर(अमर छत्तीसगढ) 16 सितंबर। जैसा कि सर्वविदित है कि जैन सम्प्रदाय के श्रावक दीपावली इसलिए मानते हैं क्योंकि कार्तिक अमावस्या के दिन भगवान महावीर स्वामी मोक्ष गए थे और उसी दिन सांध्यकालीन समय में गौतम गणधर जी को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। भगवान महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात 62 वर्ष में तीन अनुबद्ध केवली हुए, फिर अगले 100 वर्ष में 5 श्रुत केवली हुए। श्रुत केवली को 14 पूर्व भाव का ज्ञान होता है। जैन धर्म में अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु जी हुए और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त जी हुए।
चंद्रगुप्त जब राजा थे तब उन्होंने विचित्र 16 स्वप्न देखे थे, तब वे उन स्वप्नों का मतलब जानने के लिए भद्रबाहु जी के पास गए, भद्रबाहु जी जी उन्हें उन विचित्र स्वप्नों का मतलब समझाया। भद्रबाहु जी ने चन्द्रगुप्त को बताय था कि उनके स्वप्नों का धर्म पर भविष्य में क्या असर पड़ेगा। सरकण्डा जैन मंदिर में संचालित प्रमाणिक पाठशाला के बच्चों द्वारा अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु एवं चन्द्रगुप्त के 16 स्वप्नों एवं उन स्वप्नों के फल का जीवंत मंचन किया गया।
इस प्रस्तुति में यह भी दिखाया गया कि कैसे आज के युग में हमको उन स्वप्नों के फल का परिणाम देखने को मिल रहा है। इस नाटिका की परिकल्पना श्रीमती प्रीति जैन और अनुभूति जैन द्वारा की गई है और निर्देशन समक्ष जैन द्वारा किया गया। सौम्य, अवसि, अनंत, सोहनी, वंश, हर्ष, आन्या, अनमोल, अर्हं, इशिता, सिमर, प्रत्युष, पार्शवी, आस्तिक, अनवी, देशना, पीर, चारु ने अपनी प्रस्तुति से इस नाटिका में चार चाँद लगा दिए।
कार्यक्रम के शुरुआत में छोटे-छोटे बच्चों मंगलाचरण के माध्यम से दादा-दादी, मम्मी-पापा, चाचा-चाची सभी से अनुरोध किया कि सभी प्रतिदिन मंदिर जाए और उन्हें भी साथ ले जाकर धर्म से जोड़े। इसके साथ ही उन्होंने 1 से 10 तक की गिनती का जैन धर्म के अनुसार मतलब समझाया। शुभी, शुभ. संस्कार, आरु, आद्या, विद्यांशी, अनायशा, आगम, पुंज, परीशा, मिहिर, नव्या ने मंगलाचरण की प्रस्तुति दी। बच्चों को मंगलाचरण का अभ्यास क्षिप्रा, अनी और मोना ने करवाया।
विगत पाँच दिनों से चल रहे तीर्थकर चौबीसी विधान का मन्त्रोंचार के साथ समापन और हवन हुआ। दशलक्षण पर्व के आठवें दिन उत्तम त्याग धर्म के दिन पंडित जयदीप शास्त्री जी ने बताया कि दान और त्याग में थोड़ा सा अन्तर है। रागद्वेष से अपने को छुड़ाने का नाम ‘त्याग” है, जबकि वस्तुओं के प्रति रागद्वेष के अभाव को ‘त्याग’ कहा गया है। दान में भी रागभाव हटाया जाता है किन्तु जिस वस्तु का दान किया जाता है, उसके साथ किसी दूसरे के लिए देने का भाव भी रहता है। दान दूसरों के निमित्त को लेकर किया जाता है किन्तु त्याग में पर की कोई अपेक्षा नहीं रहती। किसी को देना नहीं है, मात्र छोड़ देना है। त्याग ‘स्व” को निमित्त बनाकर किया जाता है।
दान देते समय दाता के हृदय में न तो क्रोध की भावना आनी चाहिये, न अभिमान जाग्रत होना चाहिए, दान में मायाचार तो होना ही नहीं चाहिये। ईष्र्याभाव से दान देने का भी यथार्थ फल नहीं मिलता। साथ ही किसी फल या नाम-यश की इच्छा से दान करना भी प्रशंसनीय तथा लाभदायक नहीं। दाता को शांत, नम्र, सरल, निर्लोभी, सन्तोषी, विनीत् होना चाहिए।
कीर्ति तो दान देने वाले को अपने आप मिलती ही है फिर कीर्ति की इच्छा से दान करना व्यर्थ है। दान देते समय सदा यह उदार भाव होना चाहिए कि जिसको दान दे रहा हूँ उसका कल्याण हो। दान देने से पुण्य कर्म का संचय होता है इस कारण दान से स्व-उपकार होता ही है। दान-रूप त्याग के द्वारा जो सुख प्राप्त होता है वह अकेले ‘स्व’ का नहीं, ‘पर’ का भी होता है।
पंडित जी ने जैनागम के एक श्लोक का अर्थ समझाते हुए बताया कि “दान चार प्रकार का होता है – आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान। यह दान मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के संघ को देना चाहिए, क्योंकि धन तो बिजली की चमक के समान नाशवान है, अतः मनुष्य भव में इसका दान दे कर लाभ ले लेना चाहिए। आगे उन्होंने और समझाया कि जिस प्रकार, कुँए का जल यदि प्रयोग में नहीं आये, तो सड़ जाता है; उसी प्रकार, यदि घर में धन इकट्ठा हो जाए और उसे श्रेष्ठ कार्य में नहीं लगाया जाए तो वह नष्ट हो जाता है या तो वह परिवार पर खर्च हो जाता है, या तो चोर चुरा ले जाते हैं अथवा बह जाता है अर्थात व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।