धर्म की पहली सीख-खुद भी सुख से जिओ, दूसरों को भी सुख से जीने दो- राष्ट्रसंत ललितप्रभजी

धर्म की पहली सीख-खुद भी सुख से जिओ, दूसरों को भी सुख से जीने दो- राष्ट्रसंत ललितप्रभजी

रायपुर (अमर छत्तीसगढ़) ‘‘धर्म हमेशा सुई-धागे की भांति आपस में जो टूटे हुए हैं उन्हें जोड़ने का काम करता है। इसीलिए हम सब लोगों को इस बात के लिए हमेशा अपने अंतर्मन को तैयार रखना चाहिए, कि हम कभी-भी धर्म, पंथ, सम्प्रदाय के नाम पर किसी को सीमाबंद घेरे वाले कुंए में नहीं बल्कि सागर की ओर ले जाएंगे। हमें धर्म के नाम पर अपने नजरिए को हमेशा विराट रखना चाहिए। आदमी को धर्म के नाम पर हमेशा उदार रहना चाहिए, अपने नजरिए को हमेशा बड़ा रखना चाहिए। क्योंकि धर्म हमें पहली सीख यही देता है कि खुद भी सुख से जियो और दूसरों को भी सुख से जीने दो।’’
ये प्रेरक उद्गार राष्ट्रसंत महोपाध्याय श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग जीने की कला के अंतर्गत धर्म सप्ताह के प्रथम दिवस सोमवार को व्यक्त किए। वे आज ‘नए युग में धर्म का प्रेक्टिकल स्वरूप’ विषय पर प्रवचन दे रहे थे। उन्होंने गीतिका- धर्म शांति का द्वार है, मर्यादा की ज्योत, भरे आँगन की रौशनी, तजिए बैर-विरोध जगत में… मीठी वाणी बोलिए, मीठा हो बर्ताव, मीठी वाणी में छिपी प्रभु की शीतल छांव, जगत में प्रभु की शीतल छांव…के गायन से धर्म को जीवन में प्रेक्टिकल स्वरूप में आत्मसात करने की प्रेरणा दी।

धर्म हमेशा जोड़ने का कार्य करता है
धर्म लोककल्याणकारी बने इस संदर्भ में संतप्रवर ने कहा कि धर्म हमें अपने जीवन में यही सीख देता है कि जहां इंसान-इंसान आपस में हिल-मिलकर रहते हों, आपस में उनका बैर-विरोध न हो, एक-दूसरे से ईर्ष्या न करते हों यहीं से तो धर्म की शुरुआत होती है। अगर प्रेम, मैत्री, सद्भावना के सद्गुण हममें है तो समझ लेना कि धर्म का हमारे जीवन में प्रवेश हो चुका है। धर्म इंसान को कभी तोड़ने-अलग करने, आपस में लड़ने का पाठ नहीं पढ़ाता, धर्म तो लोगों को जोड़ने का पाठ पढ़ाता है। धर्म तो समाज को आपस में करीब लाने का, परिवार को आपस में जोड़ने का पाठ पढ़ाता है। तभी तो हमारे भारत का लोकप्रिय गीत है- मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना… । धर्म तो जलती हुई मशाल है, जो हमें जीवन की रौशनी देती है। दिक्कत ये है, जब मशालें बुझ जाया करती हैं तब आदमी के हाथ में केवल लकड़ियां रह जाती हैं और लकड़ियां लड़ने-मारने के अलावा और कोई काम नहीं करतीं। धर्म वह लकड़ियां नहीं, लकड़ियों के ऊपर जलने वाली मशाल है। जो पूरी मानव जाति को धर्म का पाठ पढ़ाती है।

जो तुम अपने लिए चाहते हो वही तुम सबके लिए चाहो
संतप्रवर ने कहा कि हजारों साल पहले हमारे तीर्थंकर महापुरुषों और भगवत पुरुषों ने हमें जीवन की महान प्रेरणा दी थी- जियो और जीने दो। इस भावना को देने के पीछे मूल उद्देश्य यही था कि व्यक्ति को स्वार्थांधता से बाहर निकालकर परमार्थ बुद्धि दी जाए। आदमी केवल अपने लिए ही जीने की व्यवस्था न करे अपितु दूसरे भी जीवन जी सकें इसके लिए अच्छी व्यवस्था भी दो। अगर भगवान ने तुम्हें सम्पन्न बनाया है और दूसरों को विपन्न बनाया है तो अपने धन का उपयोग इस बात के लिए करो कि खुद भी सुख से जीऊं और दूसरों को भी सुख जीने की सुविधा दो। जब भगवान से पूछा गया था कि धर्म का सार क्या है, तब भगवान ने केवल दो लाइनों में कहा था- जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही तुम सबके के लिए चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वो किसी के लिए भी मत चाहो। यदि तुम वेदना नहीं सहना चाहते, तो दूसरों को वेदना मत दो। अपनी आलोचना नहीं सुनना चाहते तो दूसरों की आलोचना मत करो। आप अपने धन कभी चोरी होने देना नहीं चाहते तो दूसरों के धन को मत हड़पो। क्योंकि इससे बड़ा कोई पाप नहीं है कि तुम जो अपने लिए चाहते हो वो तो तुम दूसरों के लिए नहीं चाहते हो। आज तक इस देश के इतिहास में ऐसी प्रार्थना नहीं बनी कि भगवान तू केवल मेरा भला कर। इस देश ने मानवता के कल्याण के लिए सोच बनाई। इसीलिए हम हमेशा गाते गुनगुनाते हैं- सर्वे भवन्तु सुखिन: ।

सबकी भलाई के लिए हो हमारी प्रार्थना
धर्म को अपनी चर्या में शामिल करने की प्रेरणा देते हुए संतश्री ने कहा कि याद रखना, जब आप कहते हैं कि भगवान तू मेरा भला कर तब भगवान सात जन्म में नहीं करता और जब यह कहते हैं कि भगवान तू सबका भला कर तो भलाई की शुरुआत वो आपसे ही करता है। आदमी चौबीस घंटे मंदिर पूजा, सामायिक में तो नहीं रह सकता पर आदमी अपने मन की दशा को चौबीस घंटे धर्ममय बनाकर जरूर रख सकता है। चौबीस घंटे मुंह में मुपत्ति बांध कर रखना संभव नहीं है तो यह तो हमारे वश में है कि जब घर में कोई कलह-कोलाहल का वातावरण बन रहा है तो मैं शांत रह जाऊं।
धर्म चित्त की शुद्धता-धर्म शांति सुख चैन
संतश्री ने बताया कि जैन दर्शन में वचनगुप्ति का संकल्प लिया जाता है, जिसका अर्थ है- क्या नहीं बोलना है इसका विवेक हो। धर्म हमें यह विवेक दे रहा है कि तुम्हें कब कौन-सी बात नहीं बोलनी चाहिए। जब-जब मन में क्रोध का वातावरण पैदा हो तब-तब मन में प्रेम और क्षमा को जगा दो, उसका नाम धर्म है। जब-जब लोभ का वातावरण पैदा हो तब-तब मन में संतोष को जगा दो इसका नाम धर्म है। जब-जब वासना का अवसर सामने आए तब-तब संयम को पैदा कर दें, इसका नाम धर्म है। और जब-जब अहंकार का वातावरण सामने आए तब-तब विनम्रता को मन में पैदा कर दें, इसका नाम धर्म है। धर्म चित्त की शुद्धता-धर्म शांति सुख-चैन। मुंह में मुपत्ति बांधना केवल परंपरा का ही प्रतीक नहीं वह हमारी शांति का प्रतीक है।

क्यों लगाते हैं माथे पर चंदन, क्यों बजाते हैं मंदिर में घंटा
संतप्रवर ने धर्म क्रियाओं की पीछे छिपे सार्थक उद्देश्यों से अवगत कराते हुए कहा कि अनेक लोग ललाट पर चंदन का तिलक लगाते हैं, इसीलिए नहीं कि केवल माथा ठंडा रहे। ललाट पर तिलक लगाना यह केवल परंपरा का ही प्रतीक नहीं, ये इस बात का प्रतीक है कि हे प्रभु मैं आपकी पूजा बाद में कर रहा हूं, उससे पहले मैं आपकी साक्षी से अपने ललाट पर तिलक धारण कर यह संकल्प ले रहा हूं कि हे प्रभु आपने जो धर्म का मार्ग दिया है मैं उसका पालन मैं केवल मंदिर में ही नहीं अपितु सर्वत्र करता रहूंगा। आपकी आज्ञाओं का मैं वैसा ही पालन करूंगा जैसे मैंने अपने माथे पर तिलक लगाया है। हम मंदिर में घंटा इसीलिए बजाते हैं ताकि हम अपनी सोई हुई चेतना को जगा सकें। हे भगवन मैं अब तक संसार की मोह-माया में डूबा हुआ था, अब मैं आपके मंदिर में आ गया हूं तो प्रवेश करते ही संसार के विषयों का त्याग करता हूं। हमारी हर धर्मक्रिया में कोई न कोई महान उद्देश्य छिपा हुआ होता है।

हमारी हर चर्या में हो धर्म
संतश्री ने कहा कि आज जब हम धर्म का प्रैक्टिकल स्वरूप समझना चाहते हैं तो पहला कार्य ये करें कि धर्म की शुरुआत आप वहां से करें जहां पर आप चौबीस घंटे रहते हैं। धर्म की आपकी हर चर्या में हो। जब आप सुबह उठकर बाथरूम में नहाने जा रहे हों धर्मपूर्वक यानि जयनापूर्वक जाएं। किचन में जब प्रवेश करें तो पहले जीवों की रक्षा का ध्यान रखें। जीवों-सूक्ष्म जीवों की विराधना न करना यही आराधना है। किसी एक जीव को बचाना, उसे अभयदान, प्राणदान देना एक मंदिर को बनाने जितना पुण्यदायी होता है। केवल धर्म की चर्चा ही नहीं धर्म की चर्या भी करें। अग्नि का धर्म जलना-जलाना है, पानी का धर्म शीतल होना और शीतल बनाना है, हवा धर्म उड़ना और उड़ाना है, पुष्प का धर्म है खुशबू में रहना और दूसरों को खुशबू देना है, तो इंसान होकर इंसान का पहला धर्म है अपने कर्तव्यों का पालन करना।

मनुष्य भव को सार्थक करने रहें समर्पित: डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय
दिव्य सत्संग के पूर्वार्ध में डॉ. मुनिश्री शांतिप्रिय सागरजी ने कहा कि इस अनमोल मनुष्य भव को सार्थक करने के लिए हमेशा हमें समर्पित रहना चाहिए। मनुष्य जीवन प्राप्त होने के बाद हमें दूसरी दुर्लभ चीज मिली है वह धर्म श्रवण का अवसर। सद्गुणों को धारण करना ही धर्म कहलाता है। धर्म मार्ग में आगे बढ़ने के लिए हमें प्रयत्न-पुरूषार्थ करते चले जाना है। याद रखें यह मनुष्य जीवन ही हमें मिली दुनिया की बेशकीमत दौलत है, इससे बढ़कर दुनिया में और किसी चीज का मूल्य नहीं है।

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