पर्व दसलक्षण पर्व के छठवें दिन उत्तम संयम धर्म के दिन धार्मिक कार्यक्रमों….. स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण और मन पर नियंत्रण करना इन्द्रिय-संयम है- पंडित रवि जैन

पर्व दसलक्षण पर्व के छठवें दिन उत्तम संयम धर्म के दिन धार्मिक कार्यक्रमों….. स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण और मन पर नियंत्रण करना इन्द्रिय-संयम है- पंडित रवि जैन

बिलासपुर (अमर छत्तीसगढ़) दिगम्बर जैन समाज के सबसे बड़े पर्व दसलक्षण पर्व के छठवें दिन उत्तम संयम धर्म के दिन धार्मिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में समाज के समर्पण समूह द्वारा एक अनूठी धार्मिक प्रतियोगिता धर्म के गणितज्ञ का आयोजन किया गया। आठ साल के बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्गों तक के लिए यह एक खुली प्रतियोगिता थी, जिसमें धर्म के सवालों को गणित के सम्बन्धो के माध्यम से पूछा गया। चार चरण की इस प्रतियोगिता में पहला चरण आठ से बारह साल के बच्चों के लिए रहा।

कार्यक्रम का संचालन श्रीमती अनुभूति जैन और डॉ. सुप्रीत जैन किया, नियमों की जानकारी समर्पण समूह के दीपक जैन ने दी तथा कार्यक्रम के संचालन में तकनीकी सहयोग अमन जैन एवं अमित जैन का रहा। कार्यक्रम के प्रारम्भ में मिहिका जैन द्वारा भारतीय नृत्य शैली में बहुत ही आकर्षक मंगलाचरण प्रस्तुत किया गया।

उत्तम संयम धर्म के दिन आयोजित धर्म सभा में सांगानेर से पधारे पंडित रवि जैन ने इस धर्म की व्याख्या करते हुए कहा प्राणी-रक्षण और इन्द्रिय दमन करना संयम है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण और मन पर नियंत्रण करना इन्द्रिय-संयम है। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। इन दोनों संयमों में इन्द्रिय संयम मुख्य है क्योंकि इन्द्रिय संयम प्राणी संयम का कारण है, इन्द्रिय संयम होने पर ही प्राणी संयम होता हैं, बिना इन्द्रिय संयम के प्राणी संयम नहीं हो सकता।

इन्द्रियाँ बाह्म पदार्थों का ज्ञान कराने में कारण है, इस कारण तो वे आत्मा के लिये लाभदायक हैं क्योंकि संसारी आत्मा इन्द्रियों के बिना पदार्थों को जान नहीं सकता। पँचेन्द्रिय जीव की यदि नेत्र-इन्द्रिय बिगड़ जावे तो देखने की शक्ति रखने वाला भी आत्मा किसी वस्तु को देख नहीं सकता, परंतु इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर आत्मा तो आकृष्ट करके पथभ्रष्ट कर देती हैं, आत्मविमुख करके आत्मा को अन्य सांसारिक भोगों में तन्मय कर देती हैं, मोहित करके विवेक शून्य कर डालती हैं, जिससे कि सांसारिक आत्मा बाह्म-दृष्टि बन कर अपने फँसने के लिये स्वयं कर्मजाल बनाया करती है। इन्द्रियों का यह कार्य आत्मा के लिये दुख दायक है। आगे उन्होंने कहा कि सारा संसार इन्द्रियों का दास बना हुआ है। बड़े-बड़े बलवान योद्धा और विचारशील विद्वान भी इन्द्रियों के गुलाम बने हुए हैं, अपना अधिकतर समय इन्द्रियों को तृप्त करने में लगाया करते हैं। एक उदाहरण देते हुए उन्होंने समझाया कि हाथी कितना बलवान प्राणी है किंतु कामातुर होकर स्पर्शन इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये मनुष्य के जाल में फँस जाता है। हाथी पकड़ने वाले मनुष्य हाथियों के जाल में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदते हैं। उसको बहुत पतली लकडि़यों से पाटकर उस पर हरी घास फैला देता हैं और उसके ऊपर कागज की एक सुंदर हथिनी बनाकर खड़ी कर देते हैं। हाथी उस हाथिनी को सच्ची हथिनी समझकर उस गड्ढे की ओर झपटता है जिससे पतली लकडि़याँ टूट जाती हैं और हाथी उस गड्ढे में गिर जाता है, वहाँ से निकल नहीं सकता तथा मनुष्यों द्वारा पकड़ लिया जाता है।

इसी तरह स्पर्शन इन्द्रियों के वश में होकर मनुष्य भी आत्म गौरव, धन, कीर्ति बल पराक्रम नष्ट भ्रष्ट करके सर्वस्व गँवा देते हैं, प्राण तक अर्पण कर देते हैं। रसना इन्द्रिय की लोलुपता में फँस कर अगाध जल में विचरण करने वाली मछली अपने प्राण दे बैठती है। मछलियाँ पकड़ने वाले लोहे के काँटे की नोक पर आटा या कोई खाने का अन्य पदार्थ लगाकर पानी में डाल देते हैं। मछली जैसे ही उसे खाने के लिए अपना मुख फाड़ती है कि तत्काल वह लोहे का काँटा उसके गले में फँस जाता है और मछली पकड़ में आ जाती है। इसी प्रकार रसना इन्द्रिय के वश में होकर मनुष्य भी अनेक तरह के स्वादिष्ट भोजन लोलुपी बन जाते हैं। उस समय उनका भक्ष्य अभक्ष्य पदार्थों का विवेक शिथिल हो जाता है, भोजन भट्ट बनकर अपनी धनहानि तथा शारीरिक हानि कर बैठते हैं। मद्य, माँस, मधु आदि पदार्थ रसना इन्द्रिय को प्रसन्न करने के लिए ही खाये पिये जाते हैं। बहुत से लोलुपी मनुष्य ऐसे ही खान-पान में अपना सर्वस्व स्वाहा कर देते हैं। संयमी व्रत-त्यागी पुरुष यदि रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त न करे तो अपने समय को सुरक्षित नहीं रख सकता, वह अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसख्यान, रस परित्याग आदि तपों का ठीक समुचित आचरण नहीं कर सकता। इस कारण रसना इन्द्रिय का विषय भी स्पर्शन इन्द्रिय के समान महान् प्रबल है। घ्राण इन्द्रिय के विषय में अचेत होकर भौंरा अपने प्राण खो बैठता है। भौंरा अपने डँक में बाँस मैं छेद कर देता है, किंतु कमल की सुगंधी का लोभी भ्रमर कमल में बंद होकर उसमें से बाहर निकलने के लिये कमल में डँक नहीं मारता।

एक भौंरा दिन के समय खिले हुए कमल के फूल में जा बैठा और दिन भर उसकी सुगन्धों में मस्त रहकर वहीं पर बैठा रहा। सूर्यास्त होते समय जब कमल की खिली हुई पँखुडि़यों मुंदने लगीं तब भी भौंरा वहाँ से न उड़ा, यहाँ तक कि कमल मुकुलित हो गया और उसी कमल में कैद हो गया। फिर भी उसने कमल की गंध में मस्त रहकर उससे बाहर निकलने की कोशिश नहीं की, इस तरह कमल की गंध का लोलुपी भौंरा जान से मारा गया।

मनुष्य भी नाक की इच्छा पूर्ण करने के लिये सुगंधित फूल, कपूर, तेल, इत्र आदि का प्रयोग किया करते थे। नेत्र इन्द्रिय सदा सुंदर वस्तुएँ, अच्छे प्रकाश और खेल तमाशे देखना चाहती है। वर्षा ऋतु में असंख्य पतंगे उत्पन्न होते हैं, और वे दीपक, लालटेन, बिजली का प्रकाश देखने के लिये दीपक, लालटेन या बिजली के लट्टू पर झपटते हैं और उसी की लौ में अथवा बल्ब के तपे हुए शीशे पर जल कर मर जाते हैं। कानों को तृप्त करने के लिये हिरन सुरीले बाजों तथा गायन को सुनने के लिये शिकारी के हाथ पड़ जाता है।

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