डॉ. हरीन्द्र मोहन शुक्ल (प्रोफेसर-पंचकर्म)
भारत विविधीकरण का देश है। भारत दुनियां भर में अपनी संस्कृति, परंपराओं और त्योहारों के लिए प्रसिद्ध देश है। यह विविध संस्कृतियों और परंपराओं की भूमि है। यहाँ हर राज्य की अपनी अनूठी कला, संस्कृति और परंपरा होती है। एक चीज जो सभी राज्यों में समान है, वह है व्यक्तिगत संस्कृति और परंपरा का उत्सव। भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण तत्व अच्छे शिष्टाचार, तहज़ीब, सभ्य संवाद, धार्मिक संस्कार, मान्यताएँ और मूल्य आदि हैं। अब जबकि हर व्यक्ति की जीवन शैली आधुनिक हो रही है, भारतीय लोग आज भी अपनी परंपरा और मूल्यों को बनाए हुए हैं। विभिन्न संस्कृति और परंपरा के लोगों के बीच की घनिष्ठता ही विविधता में एकता का द्योतक है। मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का साक्षी संस्कृति और परम्परा ही होते हैं। इसके बिना हम मनुष्य ही नहीं रहेंगे।
संस्कृति परम्पराओं से, विश्वासों से, जीवन शैली से, आध्यात्मिक पक्ष से, भौतिक पक्ष से निरन्तर जुड़ी है। यह हमें जीवन का अर्थ, जीवन जीने का तरीका सिखाती है। संस्कृति में अनुकूलन का गुण होता है। संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता होती है कि यह समय के साथ-साथ आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलित हो जाती है।
भारतीय अपनी मान्यताओं, संस्कृति और परंपरा को त्योहारों के रूप में मनाते हैं। हर त्योहार की अपनी खास विशेषताएं होती हैं। भारत में त्योहारों को मौसम के अनुसार और राज्य के अनुसार मनाया जाता है। इन त्योहारों को मनाने का मुख्य कारण खुशियां फैलाना और मित्रों और परिवार के बीच बंधन को मजबूत करना है। कई त्योहार स्थानीय होते हैं और हर साल अलग-अलग तिथियों पर आयोजित किए जाते हैं। भारत में त्योहारों की प्रासंगिकता एक विशेष मंदिर में किसी विशिष्ट देवता का सम्मान एवं पूजा करना, कृषि चक्र या धार्मिक कहानी या घटना का जश्न मनाना है।
छत्तीसगढ़ भी सांस्कृतिक रूप से समृद्ध एवं सम्पन्न प्रदेश है। यहाँ की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा हिंदू एवं सनातनी है।
प्रदेश में गोंड़, हल्बा, हल्बी, कमार, उरांव, बैगा, बिंझवार, घुरावां, परजा, मुरिया, कंवर, बिरहोर, भैना, मंझवार आदि जनजाति के लोग अहीर, तेली, कुर्मी, नाई, राउत, लोहार, अघरिया, धोबी, सतनामी, मिलाल, भतरा, मीना, पटेलिया, वैश्य, ब्राह्मण, ठाकुर आदि अन्यान्य रीति रिवाजों को मानने वालों के साथ सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व की भावना के साथ सदियों से रहते आ रहें हैं। सामाजिक एवं आर्थिक विभिन्नता के बावजूद छत्तीसगढ़ में प्रमुख तीज-त्योहारों को मिलजुल कर मनाने की परंपरा है। हरेली, भोजली, खमरछठ, तीजा, पोरा, अक्ति, गौरी-गौरा, देवारी, जेठवनी, करमा, मातर, मेघनाथ, रतौना, सरहुल, बीच बोहानी आदि त्योहारों एवं रिवाजों को यहाँ मिलजुल कर उल्लासपूर्वक मनाते हैं। अन्नदान का महापर्व छेरछेरा तिहार भी इन्ही त्योहारों में शामिल है। छत्तीसगढ़ में त्योहार को “तिहार” कहा जाता है। महादान और फसल उत्सव के रूप मनाया जाने वाला छेरछेरा पर्व छत्तीसगढ़ के सामाजिक समरसता और समृद्ध दानशीलता का प्रतीक है। लोक परंपरा के अनुसार छत्तीसगढ़ में नई फसल के खलियानों से घर आने की खुशी में पौष मास की पूर्णिमा को छेरछेरा पुन्नी तिहार मनाया जाता है। इसी दिन मां शाकम्भरी जयंती भी मनाई जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान शंकर, माता अन्नपूर्णा से भिक्षा मांगते हैं। अतः धान के अलावा, धन, साग-भाजी, फल आदि का भी दान करते हैं। लोग घर-घर जाकर अन्न का दान माँगते हैं। वहीं गाँव के युवक घर-घर जाकर डंडा नृत्य करते हैं। इस दिन अन्नपूर्णा देवी तथा मां शाकंभरी देवी की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि जो भी बच्चों को अन्न का दान करते हैं, वह मृत्यु लोक के सारे बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं।सुबह से ही बच्चे, युवक व युवतियाँ हाथ में टोकरी, बोरी आदि लेकर “छेरिक छेरा छेर मरकनीन छेर छेरा,
माई कोठी के धान ल हेर हेरा ।।
“अरन बरन कोदो दरन, जब्भे देबे तब्भे टरन”। के उदघोषित गूँज के साथ घर-घर छेरछेरा माँगते हैं। वहीं युवकों की टोलियाँ डंडा नृत्य कर घर-घर पहुँचती हैं। धान मिंसाई हो जाने के चलते गाँव में घर-घर धान का भंडार होता है,फलस्वरूप लोग छेर छेरा माँगने वालों को स्वेच्छापूर्वक मुक्त हस्त से दान करते हैं। इन्हें हर घर से धान, चाँवल और नकद राशि मिलती है। वस्तुतः इस पर्व में अन्न दान की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इस त्योहार के दस दिन पहले ही डंडा नृत्य करने वाले लोग आसपास के गाँवों में नृत्य करने जाते हैं। वहाँ उन्हें बड़ी मात्रा में धान व नगद रुपए मिलते हैं। इस त्योहार के दिन कामकाज पूरी तरह बंद रहता है। इस दिन लोग प्रायः गाँव छोड़कर बाहर नहीं जाते।
छेरछेरा का यह उत्सव कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा की याद दिलाता है। उत्सवधर्मिता से जुड़ा छत्तीसगढ़ का मानस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है।
ऐसे शुरू हुआ छेरछेरा त्यौहार:–
कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय ने मुगल सम्राट जहांगीर की सल्तनत में रहकर राजनीति और युद्ध कला की शिक्षा ली थी। वह करीब आठ साल तक अपने राज्य से दूर रहे। शिक्षा लेने के बाद जब वे वापस रतनपुर आए तो प्रजा को इसकी खबर लगी। खबर मिलते ही लोग राजमहल की ओर चल पड़े छत्तीसगढ़ के सभी राजा कौशल नरेश का स्वागत करने के लिए रतनपुर आने लगे। राजा आठ साल बाद वापस आए थे, इस बात से सारी प्रजा बहुत उत्साहित थी। हर कोई लोक-गीतों और गाजे-बाजे की धुन पर नाच रहे थे। राजा की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी रानी फुलकैना ने आठ साल तक राजकाज संभाला था। इतने समय बाद अपने पति को देख कर वह बहुत खुश थी। उन्होंने सोने-चाँदी के सिक्के प्रजा पर लुटाना चालू किया। राजा कल्याण साय ने उपस्थित राजाओं को निर्देश दिए कि आज के दिन को हमेशा त्योहार के रूप में मनाया जाएगा, ऐसा सभी राज्य में सूचित कर दिया जाए, यह शुभ अवसर हमेशा के लिए यादगार बना रहे और इस दिन किसी के घर से कोई खाली हाथ नहीं जाएगा।
एक और जनश्रुति है कि एक समय धरती पर घोर अकाल के कारण अन्न, फल, फूल व औषधि कुछ भी नहीं उपज पाई। इससे मनुष्य के साथ जीव-जंतु भी हलाकान हो गए। सभी ओर त्राहि-त्राहि मच गई। ऋषि-मुनि व आमजन भूख से थर्रा गए। तब आदि देवी शक्ति शाकंभरी को पुकारा गया।
शाकंभरी देवी प्रकट हुई और अन्न, फल, फूल व औषधि का भंडार दे गई। इससे ऋषि-मुनि समेत आमजनों की भूख व दर्द दूर हो गया। इसी की याद में छेरछेरा मनाए जाने की बात कही जाती है।
समस्त छत्तीसगढ़ निवासियों को छेरछेरा महापर्व की गाड़ा गाड़ा बधाई।